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________________ लाग्गे, “सरीर के रोग मेट्टण खात्तर तै मेरे धोरै घणी-ए सिद्धी सैं । पर सरीर तै मेरा कोए भी मतबल कोन्यां । यो बेमार है अक ठीक है, मन्नैं के! मैं आत्मा पै चड्ढा होया करमां का मैल धोणा चाहूं सूं । या तो मेरी कमअकली थी अक ईब ताईं मैं सरीर के रूप नैं -ए देखदा रहूया । " मुनी जी की या बात सुण कै बैद सिमझ गे-यो मुनी आपणे बरतां तै डिग्गै कोन्यां । वे देवलोक में पहोंचे। इन्दर तै माफी मांगते होए बोल्ले, "म्हाराज ! थमनैं सनत्कुमार मुनी की बाबत जो कहूया था, ओ हम आपणी आंख्यां तै देख आए । साच्चें -ए उनकी जिनगी धन्न सै। ईब है उनमें सरीर के रूप की इच्छा भी कोन्यां । वे तै आतमा की सुथराई हासल करणा चाहूवैं जै ईसी-ए तिपस्या वे करते रहे तै जरूर कामयाब होवेंगे । " ओड़ै जो ओर देव बैठे थे, उन नैं भी भित्तर-ए-भित्तर मुनी सनत्कुमार के साच्चे अर मजबूत बरतां की बडाई करी अर ओड़े तै- ए उनकी बंदना करी । सैं । हरियाणवी जैन कथायें / 42
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
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