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________________ महावीर नैं दया-धरम का इमरत बरसाते होए कहूया रै सांप्पां के राज्जा! सिमझ! सिमझ !! समझ !!! छोहू का नतीजा तन्नैं देख लिया । तू आपणा बीत्या होया टैम याद कर । तू इसा क्यूकर बण ग्या? सरप की जून मैं क्यूं आया? ईब इस हाल नैं छोड दे । महावीर की बात सुण कै चंडकोसिया सांप नैं होंस आया। उस नैं आपणे पाछले जनम का ग्यान हो गया । इस ग्यान मैं चंडकोसिया नैं आपणे पहल्यां के जनम देक्खे। ओ देक्खण लाग्या पराणे टैम के एक जनम मैं ओ मुनी था। उसका नां गोभद्दर था । लापरवाही तै चालती हाणां गोभद्दर मुनी के पायां तलै एक मींडक आ ग्या। मींडक ओड़े-ए मर ग्या । मुनी नै बेरा ना पाया । पाछै-पाछै आंदे चेल्ले नैं सब किमे देख लिया। उसनैं गरू जी कै या बात याद कराई अर आपणी आतमा की सफाई करण की कही । गोभद्दर मुनी नैं छोह आ गया । वे बोल्ले, “तन्नैं घणा दीक्खै सै? मन्नैं तै कितै ना दीख्या । पडूया होगा राह मैं पहल्यां तै- ए मरूया होया । मैं मींडक क्यूं मारदा ?" चेल्ला चुप हो गया। रात नै ध्यान ( परति-करमण) करदी हाणां चेल्ले नै गरूजी के फेर वा-ए बात याद कराई। कहूया- “गरू जी! आलोचना कर ल्यो ।” गोभद्दर मुनी कै या बरदास कोन्यां होई । उन नैं आपणा डण्डा ठाया भगवान महावीर अर चण्डकोसिया सांप / 97
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
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