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________________ - - -आस्था की ओर बढ़ते कदम उसी प्रकार अछूता रहता है, जिस प्रकार कमल जल से, वेश्या अपने ग्राहकों से और सोना कीचड़ से। चक्रवर्ती सम्राट भरत अपने महामात्य से कहते हैं "मैं धन को तिनके के समान गिनता हूं, मैं उसे नहीं लेता। मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा हूं और इसी से तुम्हारे महल में हूं"। एक ही क्रिया का फल मिलेगा उसमें बुनियादी अन्तर होगा क्योंकि उस क्रिया की कर्त्तव्यता या अकर्त्तव्यता को सम्यक्दृष्टि व्यवहार से स्वीकार करता है जबकि मिथ्यादृष्टि उसे सिद्धांत से भी स्वीकार नहीं करता। सम्यक्दर्शन एक अष्टांग अनुभूति है। इस अनुभूति के फलस्वरूप सम्यक्दृष्टि जीव जिन वचन में शंका नहीं करता, संसारिक सुखों की आकांक्षा नहीं रखता, साधुओं के मलिन शरीर आदि को देखकर घृणा नहीं करता, कुमार्ग और कुमार्गस्थों से लगाव नहीं रखता, अपने गुणों और दूसरे के दुर्गुणों की अव्यक्त रहने देकर अपने धर्म को निन्दा से बचाता है, वासनाओं आदि के कारण अपने धर्म से विचलित होने वाले को स्थिर करता है, सह-धर्मियों से उसी प्रकार प्रेम करता है जिस प्रकार गाय बछड़े से करती है, और विभिन्न प्रकार के आयोजनों से जैन धर्म की प्रभावना करता है। इन आठ में से एक भी अंग की न्यून्ता होने पर सम्यकदर्शन उसी प्रकार प्रभावहीन होता है जिस प्रकार एक भी अक्षर की न्यूनता से कोई मन्त्र विष की वेदना के निवारण में असमर्थ रहता है। सम्यक्दृष्टि के लौकिक व्यवहार में परीक्षा प्रधानता स्वयं आ जाती है। नदी, समुद्र आदि में स्नान, बालू, पत्थर आदि का ढेर लगाना, पर्वत से कूद पड़ना, अग्नि में जल मरना आदि जो विवेकहीन क्रियाएं धार्मिक क्रियाओं के रूप में प्रचलित हो उन्हें वह कदापि नहीं करता।
SR No.009994
Book TitleAstha ki aur Badhte Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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