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________________ परमात्म तत्त्व है, उसका बोध प्राप्त हो जाता है और मोह नष्ट हो जाता है। मोह विलीन हुआ, समझो दुःख विलीन हुआ। सूर्य के उदित होने पर क्या कभी अंधकार शेष रह सकता है? एक दिन श्रीमद् राजचन्द्र जी अपनी दुकान पर बैठे थे। इतने में एक सज्जन आये, उनके हाथ में एक ग्रंथ था। उन्होंने उसे राजचन्द्र जी को दे दिया। राजचन्द्र जी उसे खोलकर पढ़ने लगे। आधा घण्टे बाद अत्यंत उल्लास में भरकर खुशी से उछलते हुए बोले- 'धन्य है इस महाग्रंथ को, इसमें तो धर्म के प्राण, आत्मा की सच्ची सुख-शान्ति की बात, आत्मा को पराधीनता से छुड़ाने की चर्चा एवं आत्म-स्वतंत्रता की घोषणा की गई है। अहो! यह ग्रंथ तो अमृत रस का सागर, रत्नों का खजाना, कामधेनु और आत्मा का कल्पवृक्ष है। आज तो तुमने मुझे अमृत रत्न दिया है।' (वह ग्रंथ 'समयसार' था) इतना कहकर राजचन्द्र जी पेटी में से मुट्ठी भर-भर कर हीरे-जवाहरात ग्रंथ लानेवाले को देने लगे। ग्रंथ लाने वाले तथा अन्य आसपास के व्यक्ति भी भौंचक्के होकर देखते रह गये। श्रीमद् राजचन्द्रजी शतावधानी बहुश्रुत विद्वान् थे। इनको महात्मा गाँधीजी ने अपना गुरु स्वीकार किया था। जिनवाणी का स्वाध्याय करके धर्म और अध्यात्म को समझने का प्रयास करो, जिससे विषयभोगों के कंकर-पत्थरों को छोड़ा जा सके। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है- जीवन क्या चीज है? जीवन तो ऐसा है कि जैसे किसी के हाथ में कुछ देर काँच का सामान रहा, फिर क्षणभर में गिरकर टूट गया। जन्म हुआ और मरण का समय आ गया। 60-70 बरस पलभर में बीत जाते हैं। जो यह जानता है, वह समय का सदुपयोग कर लेता है। संसार में अज्ञान ही दुःख का कारण है और एकमात्र सम्यग्ज्ञान ही सुख की खान है। शास्त्रों का स्वाध्याय करना बड़ा पवित्र एवं श्रेयस्कर कार्य है। ज्ञानाभ्यास के समय तन न तो किसी राग में फँसता है, न किसी द्वेष, क्षोभ, लोभ में अटकता है। बहती सरिता में उसे पार होने के लिये हमें मनुष्य देह का सहारा मिला है, इसे पाकर व्यर्थ नहीं खोना चाहिये। यह आत्मा अनादि से यत्रतत्र भटक रहा है, चारों गतियों के दुःख भोग रहा है, अपने परिणाम विकल कर रहा _0_990
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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