SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो भगवान् के स्वरूप को समझ जायेगा, वह अपनी आत्मा के स्वरूप को समझ जायेगा और जो आत्मा के स्वरूप को समझ जायेगा, वह संसार के संकटों से पार हो जायेगा। जैसा भगवान् का स्वरूप प्रकट हुआ है, वैसा मेरा भी स्वरूप प्रकट हो, इस भावना से भगवान् के स्वरूप को निरखकर बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ भगवान् की पूजा आदि करना चाहिये। समझे बिना केवल देखा-देखी या कुल–परम्परा से पूजा आदि क्रियायें करने से फायदा नहीं उठाया जा सकता। इसे एक दृष्टांत के माध्यम से समझ सकते हैं कुछ मुसाफिर लोग किसी शहर से कपड़ा खरीद कर अपने गाँव जा रहे थे। रास्ते में शाम हो गई। ठंडी के दिन थे, सो वे एक वृक्ष के नीचे ठहर गये । ठंड अधिक लगी तो उन्होंने एक उपाय किया। आसपास की बाड़ की पतली लकड़ियाँ बीनकर इकट्ठी की और चकमक से आग लगाकर फूंका और खूब रातभर अच्छी तरह से तापकर रात बिता दी और प्रातः काल अपने गाँव चले गये। अब दूसरी रात आयी तो उस पेड़ पर रहने वाले बंदरों ने सोचा कि हम लोग ठंड में यों ही ठिठुर रहे हैं, देखो वे लोग भी तो हमारी ही तरह के हाथ-पैर वाले थे, जिन्होंने पिछली रात को अपनी ठंड मिटाई थी। अपन लोग भी वैसा ही करें। सो सभी बंदर आसपास की बाड़ की छोटी पतली लकड़ियाँ बीन लाये और उन्हें एक जगह इकट्ठा करके तापने बैठ गये। फिर भी ठंड नहीं मिटी, तो उनमें से एक बन्दर बोला कि अभी इसमें लाल-लाल चीज तो डाली ही नहीं गई, ठंड कैसे मिटे? अब क्या था, आस-पास उड़ रहे पटबीजना जो कि लाल रंग के थे, सभी बंदरों ने उन्हें पकड़-पकड़ कर खूब उन लकड़ियों में झौंका। अब लकड़ियों के चारों तरफ सभी बन्दर तापने बैठ गये, तब भी ठंडी न मिटी, तो एक बंदर बोला कि अभी ठंडी कैसे मिटे? उन लोगों ने तो मुख से फूंका था, अभी अपन लोगों ने इसे मुख से फूंका तो है ही नहीं। सो उन्होंने मुख से खूब फूंका, फिर भी ठंडी न मिटी। तो फिर एक बंदर बोला कि उन लोगों ने उकडूं बैठकर हाथ फैलाकर अपनी ठंडी मिटाई थी, उस तरह से हाथ फैलाकर अभी अपन लोग बैठे नहीं तो ठंड कैसे मिटे? सो वे सब उस तरह से हाथ फैलाकर बैठ गये, पर ठंड न मिटा सके। यों उन बन्दरों ने प्रयत्न तो सारे 0 860
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy