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________________ "देवान् गुरुन् धर्म चोपाचरन् न व्याकुलमतिः स्यात् ।" वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी तीर्थंकर भगवान् की सेवा-पूजा करने वाला तथा निर्ग्रन्थ, सम्यग्ज्ञान और आत्मध्यान में लीन, ऐसे साधुओं की उपासना करने वाला तथा भगवान् तीर्थंकर के कहे हुये दयामयी धर्म की भक्ति करने वाला प्राणी कभी दुःखी नहीं हो सकता। इस बात को "चक्की के कीले के पास के दाने" इस लौकिक दृष्टान्त द्वारा समझा जा सकता है। गेहूँ आदि अन्न पीसने वाली चक्की में जितने गेहूँ के दाने डालते जाते हैं, उनमें चक्की के कीले के पास के दाने नहीं पिसते, और-सब पिस जाते हैं। उसी प्रकार हे भव्य प्राणियो! यह संसार रूपी महा भयानक चक्की है। इसके जन्म-मरण रूपी दो पाट हैं। प्रायः इसमें पड़कर सभी जीव पिस जाते हैं, दुःखी होते हैं, किन्तु जो धर्मात्मा पुरुष सच्चे देव, शास्त्र और गुरु रूपी कीले का आश्रय ले लेता है, वह कभी इस भयानक संसार रूपी चक्की में नहीं पिसता। क्योंकि उसे स्वर्गादिक की प्राप्ति होकर परंपरा से मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति हो जाती है। जिस प्रकार पारस पत्थर के संयोग से लोहा स्वर्ण हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् रूपी पारसमणि के संयोग से यह प्राणी भी विशद् ज्ञानी और तेजस्वी हो जाता है। श्री मानतुंगाचार्य ने भक्तामर स्तोत्र में लिखा है नात्यद्भुतं भुवन-भूषण भूतनाथ, भतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्याः भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।।10।। हे संसार के भूषण! आपके पवित्र गुणों से आपकी स्तुति और पूजन करने वाले मनुष्य आपके समान हो जाते हैं इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि दुनियाँ में वे स्वामी मान्य नहीं हैं जो अपने अधीन सेवकों को धन द्वारा अपने समान नहीं बनाते। भगवान् वीतारागी होने से कुछ देते नहीं हैं, लेकिन उनके आलम्बन के बिना कुछ मिलता भी नहीं है। जब तक हम भगवान् के सच्चे स्वरूप को नहीं _0_84_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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