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________________ ही पहिचान जायें, इसमें कितना श्रम है ? कोई कमाई नहीं करना है, यह काम कितना सुगम है और पर को प्रसन्न करने का, पैसा कमाने का, वैभव जोड़ने का, ये सारे काम कितने कठिन हैं, पर यह व्यामोही जीव मानता है कि मैं अमुक पदार्थ को भोगू, अमुक को प्रसन्न रखू । इस कुबुद्धि के कारण मुग्ध जीव इस संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। यह जीव न बाहर में उपयोग लगाये, अपने आपको पहिचान ले, तो इसके सारे क्लेश मिट सकते हैं। वात्सल्य के द्वारा मंदबुद्धियों का भी मतिज्ञान-श्रुतज्ञान विस्तीर्ण हो जाता है। वात्सल्य के प्रभाव से पाप का प्रवेश नहीं होता है। वात्सल्य से ही तप की शोभा होती है। तप में उत्साह बिना तप निरर्थक है। वात्सल्य से ही शुभध्यान की वृद्धि होती है। वात्सल्य से ही सम्यग्ज्ञान निर्दोष होता है। वात्सल्य से ही दान देना सफल होता है। __ "वत्से धेनुवत् सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सल्यत्वम्।" जैसे गाय अपने बछड़े के प्रति स्नेह रखती है, ऐसा ही साधर्मियों के प्रति स्नेह रखना 'प्रवचन-वत्सलत्व' कहलाता है। बिना स्वार्थ के, बिना किसी सांसारिक अपेक्षा के जो परस्पर प्रेम का भाव है, उसे 'वात्सल्य' कहा गया है। गाय और बछड़े का जो प्रेम है, वह निःस्वार्थ है, इसलिए उदाहरण गाय और बछड़े के प्रेम का दिया। गाय कभी अपने बछड़े से ऐसी अपेक्षा नहीं रखती कि मेरा बछड़ा मेरे खाने के लिए घास लाकर दे या पानी भरकर लाए । बीमार हो जाऊँ तो डॉक्टर को बुला लाए और न ही किसी बछड़े ने आज तक अपनी माँ को घास खिलाया है, न पानी भरकर पीने को रखा है और न ही अस्वस्थ होने पर गाय की सेवा की है। अपने बेटे से अपेक्षा रहती है माता-पिता को, पर गाय को बछड़े से किसी प्रत्युपकार की आकांक्षा नहीं रहती है। यह निःस्वार्थ प्रीति ही वात्सल्य कहलाती है। ऐसा वात्सल्य भाव हमारा साधर्मी के प्रति होना चाहिए। 0791n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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