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________________ भूमि शयन, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्णादि परीषह सहन कर, संयम सहित ६ यान-स्वाध्याय-सामायिक आदि आवश्यकों सहित होकर, आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर, संयमसहित काल व्यतीत करती हैं, उनके गुणों में अनुराग होना वात्सल्य भाव है। मुनिराज के समान वन में रहते हुए, बाईस परीषह सहते हुए, उत्तमक्षमादि धर्म के धारक, देह में निमर्मत्व, आपके निमित्त बनाया औषधि-अन्न-पानादि ग्रहण नहीं करनेवाले, एक वस्त्र कोपीन बिना समस्त परिग्रह के त्यागी उत्तम श्रावकों के गुणों में अनुराग वह वात्सल्य है। देव-गुरु-धर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर दृढ़ श्रद्धानी, धर्म में रुचि के धारक, अविरत-सम्यग्दृष्टि में भी वात्सल्य करना चाहिये। पंचमकाल के धनिक संसारी तो धन की लालसा से अति आकुलित होकर धर्म में वात्सल्य छोड़ बैठे हैं। संसारी के जब धन बढ़ता है तो तृष्णा और अधिक बढ़ जाती है, सभी धर्म का मार्ग भूल जाता है, धर्मात्माओं में वात्सल्य दर से ही त्याग देता है। रात्रि-दिवस धन-सम्पदा के बढाने में ऐसा अनुराग बढ़ता है कि लाखों का धन हो जाये तो करोड़ों की इच्छा करता है, आरम्भ-परिग्रह को बढ़ाता जाता है, पापों में प्रवीणता बढ़ाता जाता है तथा धर्म में वात्सल्य नियम से छोड़ देता है। आचार्य समझाते हैं- हे आत्महित के वांछक! धन-सम्पदा को महामद को उत्पन्न करने वाली जानकर, देह को अस्थिर व दुःखदायी जानकर, कुटुम्ब को महाबंधन मानकर इनसे प्रीति छोड़कर अपनी आत्मा से वात्सल्य करो। धर्मात्मा में, व्रती में, स्वाध्याय में, जिनपूजन में वात्सल्य करो। जो सम्यक्चारित्ररूप आभरण से भूषित साधुजन हैं, उनका जो पुरुष स्तवन करते हैं, गौरव करते हैं, उनके वात्सल्य गुण है। वे सुगति को प्राप्त होते हैं, कुगति का नाश करते हैं। वात्सल्य गुण के प्रभाव से ही समस्त द्वादशांग विद्या सिद्ध होती है। सिद्धान्तग्रन्थों में तथा सिद्धांत का 10 787_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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