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________________ हैं। नाभिराय से इन्द्र कहता है कि मैंने भगवान् का गर्भ एवं जन्म कल्याणक मनाया, नगर में रत्न बरसाये, इसलिये भगवान् की पालकी सर्वप्रथम हम उठायेंगे। नाभिराय जी कहते हैं कि भगवान् तपस्या हेतु वन में जा रहे हैं और तप केवल मनुष्य ही कर सकता है, इसलिये पालकी को पहले मनुष्य उठायेंगे, बाद में देवता । तब इन्द्र कहता है कि मैं एकसाथ 170 समवसरण लगा सकता हूँ और एक समवसरण में 100 चक्रवर्तियों की सम्पदा लगती है। अरे मनुष्यो ! तुम मेरी यह सारी सम्पदा ले लो, किन्तु कुछ समय को अपना मनुष्यभव मुझे दे दो, जिससे में भगवान् की पालकी उठा सकूँ। मनुष्यभव का कितना मूल्य है, यह अधिकांश मानव नहीं जानते। इसे भोग-विलास में खोना, पंचेन्द्रिय के विषयों में फँस करके इस जीवन को नष्ट करना महामूर्खता है । आज के इस भौतिक युग में, फैशन की अन्धी दौड़ में अधिकतर मनुष्य अपने षट् आवश्यक कार्यों को भूल गये हैं, इसलिये उनको सुख-शांति का अनुभव नहीं होता। मानवजीवन आत्मकल्याण करने के लिये होता है । मनुष्यजन्म की सार्थकता अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करने में है। धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करने से आत्मा सुमार्गगामी होता है। सुमार्ग वही होता है, जिसमें आत्मपरिणति निर्मल हो जाती है । इसलिये प्रत्येक गृहस्थ को षट् आवश्यक कर्त्तव्यों का पालन प्रतिदिन उत्साह से करना चाहिये । षट् आवश्यक काल जो साधै, सो ही रत्नत्रय आराधै ।। 774
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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