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________________ मनसा कर्मणा वाचा जिननामाक्षरक्ष्यम् । सदैव स्मर्यते यत्र सार्हद्भक्तिः प्रकीर्तिते।। अरहंत भक्ति वह है, जिसमें मन, वचन, काय द्वारा जिननाम के अक्षरों का निरंतर स्मरण किया जाता है। जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति द्वारा हृदय के परिपूर्ण होने पर वह भव्यात्मा निरंतर जिनेश्वर के पुण्य नाम को जपता है, उनकी आध्यात्मिक अमृत को वर्षाने वाली पावन जीवनी को पढ़ता है और उनके सर्वोच्च गुणों का विचार करता है। भीषण वन में छोड़ी गई सती शिरोमणि सीता ने राम को संदेश में कहा था ___ "जिनधर्मे मा मुंचो भक्ति यथा त्यक्ताहमहिशी' जैसे लोकापवाद से तुमने मेरा परित्याग किया है, इस प्रकार कहीं जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति का परित्याग नहीं कर बैठना, क्योंकि "सम्यग्दर्शन रत्नं तु सामग्रज्यदीप सुदुर्लभम्।' 'सम्यग्दर्शन रूपी रत्न साम्राज्य की अपेक्षा अधिक दुर्लभ है। जिन भक्ति के द्वारा यह जीव सप्त परम स्थानों का स्वामी होता है। सज्जातिः सद्गृस्थत्वं परिव्रज्यं सुरेन्द्रता। साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा।। आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने 'भावपाहुड़' में लिखा है जिनवर चरणंबरुहं णमंति जे परमभत्तिरायेण । ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्थेण । |153 ।। जो सत्पुरुष श्रेष्ठ भक्तिरूप प्रशस्त रागभाव से जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों को प्रणाम करते हैं, वे श्रेष्ठ भावरूप शस्त्र से संसाररूप बेल की जड़ का उच्छेद करते हैं। मुक्ति का कारण राग-द्वेष का अभाव होकर वीतरागता की ओर प्रवृत्ति करना है। जिसके हृदय में वीतराग जिनेन्द्र बस जाते हैं, उसके 0726_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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