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________________ वैयावृत्य भावना कर्म उदय से व्याधि उपजि, तन-मन से सेवा करना। पत्थ्य-अपत्थ्य विचार करके, औषधि वैयावृत्य करना। दश विध मुनियों के चरणों में, जा सर्व रोग को दूर करो। वैयावृत्ति उनकी करके, निरोगता को शीघ्र वरो।। कर्म के उदय से किसी साधक के शरीर में व्याधि उत्पन्न हो जाये तो पत्थ्य-अपत्थ्य का विचार करके औषधि आदि के माध्यम से तन-मन से उनकी वैयावृत्ति करनी चाहिये। जो जीव दस प्रकार के मुनियों के चरणों में जाकर उनकी वैयावृत्ति आदि करके रोग को दूर करते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं। कर्म के उदय से रोगों से पीड़ित मुनि तथा श्रावक को निर्दोष आहार, औषधि, वसतिका आदि देकर सेवा-शुश्रुषा करना, विनय करना, आदर करना, दुःख दूर करने का यत्न करना, यह सब वैयावृत्य है। जो तप द्वारा तपे हुए हों, किन्तु रोग सहित शरीर हो, उनका दुःख देखकर उनके लिए प्रासुक औषधि तथा पत्थ्य आदि द्वारा रोग का उपशम करना वैयावृत्य भावना है। साधुसमाधि भावना में अभ्यस्त पुरुष वैयावृत्य करने का सदा भाव रखता है। कितना प्रेम भरा होता है एक धर्मात्मापुरुष ? जो हो गये ज्ञानी पुरुष, वे वह सबकुछ स्वयमेव करते हैं जो उचित है। बुन्देलखण्ड का एक पुराना चरित्र है। एक राजा मर गया, तो राजमाता को थोड़ा राज्यभार दिया गया और बाकी भाग बादशाह ने अपने हाथ में ले लिया। जब वह राजपुत्र बड़ा हुआ तो राजमाता ने निवेदन किया कि अब मेरा लड़का बड़ा हो गया, इसे राज्यभार दिया जाय। तो U 718
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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