SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 709
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | साधु समाधि भावना भाव समाधि का इस जग में, बड़े पुण्य से होता है। साधुसमाधि जब भी धारे, रहित कर्म से होता है।। दो या तीन भवों को पाता, जो करता समाधिमरण । देवी-देवता झट आ करके, सर धरते हैं उनके चरण।। समाधि का भाव इस संसार में बहुत पुण्य के उदय से होता है। जब कोई साधु समाधि को धारण करता है, तब कर्मों से रहित होता है। समाधिमरण करने वाला जीव अधिक-से-अधिक सात-आठ भव और कम से कम दो-तीन भव संसार में रहता है। समाधिमरण करने वाले जीव के चरणों में देवी-देवता भी आकर प्रणाम करते हैं। उपाधिरहित समाधि को ग्रहण करना अथवा समाधि ग्रहण करने वाले साधक की सेवा करना, 'साधुसमाधि भावना' है। जैसे भंडार में लगी हुई आग को गृहस्थ अपनी उपकारी वस्तुओं का नाश होना जानकर बुझाता ही है, क्योंकि अपनी उपकारी वस्तुओं की रक्षा करना बहुत आवश्यक है, उसी प्रकार व्रत, शील आदि अनेक गुणों सहित जो व्रती-संयमी को किसी कारण से विघ्न आ जाये, तो विघ्नों को दूर करके व्रत-शील की रक्षा करना, वह साधुसमाधि है। रोग होने पर, वृद्धावस्था में, देव-मनुष्य-तिर्यंच आदि कृत उपसर्ग होने पर, शरीर की शक्ति क्षीण होने पर धर्म एवं संयम की रक्षा के लिए समाधिमरण ग्रहण किया जाता है। समाधिमरण तीन प्रकार का होता है प्रायोपगमन समाधिमरण 2. इंगिनी समाधिमरण, 3. भक्त 0 709 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy