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________________ अपनी शक्ति-प्रमाण इन बारह तपों को करने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिये, जिससे एक दिन पूर्ण तपस्वी बनकर मुक्ति को प्राप्त करें । जिन्होंने भी तप के मार्ग को अपनाया, वे नर से नारायण बने । बिना तप के आज तक किसी को भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई । तपश्चरण का एक प्रयोजन यह भी रहता है कि कदाचित् कर्मों का उदय ऐसा आये कि अनेक दिनों तक भोजन न मिल सके अथवा अनेक व्याधियाँ, विपत्तियाँ आ जायें, तो उन विपत्तियों के समय में यह साधक ज्ञान से विचलित न हो जाय, क्योंकि इसने आराम में रहकर ज्ञान का अर्जन किया है, सो कदाचित् कभी कष्ट आ जाय तो यह बहुत कुछ सम्भव है कि यह अपने ध्येय से चलित हो जाये। तो मैं कभी उपसर्ग, उपद्रवों के आने पर अपने ध्येय से विचलित न हो जाऊँ, इसके अर्थ तपश्चरण का उद्यम करना अनिवार्य है । तप करने का साक्षात् लाभ तो यह है कि जिस समय शक्ति अनुसार तपश्चरण किया जाता है, उस समय इसकी भावना पवित्र रहती है। कायक्लेश की ओर उपयोग नहीं रहता, किन्तु स्वतः ही सहज ऐसी वृत्ति जगती है कि जिससे यह अपने स्वभाव की ओर ही प्रवृत्त होता है। सो गंदे विचार, खोटे ध्यान ये सब समाप्त हो जाते हैं तपश्चरण में। जिन ज्ञानियों का उद्देश्य निर्मल है, मोक्षमार्ग के अनुकूल उद्देश्य जिसने बना लिया है, उनका यह तपश्चरण समता और शांति का साधक होता है । जिसे मोक्षमार्ग के रहस्य का पता ही नहीं है, व्रत, तप आदिक भी कर रहा हो, किन्तु मैं क्या हूँ, इसका जिसने ठीक भान नहीं किया है, ऐसे पुरुषों को उन तपश्चरणों के करने पर या तो यश के पोषण का भाव रहेगा या पद-पद पर क्रोधादिक कषायें जगेंगी। इस कारण अपना विशुद्ध उद्देश्य बना लेना सर्वप्रथम कर्तव्य है । एक बार एक राजा के यहाँ दो चित्रकार आये। मान लो दो 704 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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