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________________ समागम का भी यह सुख नहीं प्राप्त कर सकता है। विकल्पों को त्यागें, परिग्रह का परिमाण करें, परिग्रह को त्यागें और अंतरंग में अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करें। धर्मचर्चा में समय बितायें। ज्ञान की बात अपने उपयोग में बसायें। ये सब ही तो त्यागधर्म है। त्यागधर्म किए बिना शांति के स्वप्न देखना केवल एक बेहूदापन है। हो ही नहीं सकती है शांति इस तरह से। _ गृहस्थावस्था में अपनी शक्ति के अनुसार दान करना, यह भी त्याग है। इस मोही जीव को त्याग करने में उत्साह नहीं है या दान करने में उत्साह नहीं जगता। छोटी-छोटी बातों का अथवा रोज-रोज की प्रयोग में आनेवाली बातों में कछ-कछ त्याग करते रहना, यह बहत महत्त्व रखता है। त्याग कहो अथवा दान कहो, श्रावकों के करने योग्य चार प्रकार के दान कहे गये हैं- आहारदान, शास्त्रदान, औषधिदान और अभयदान । अविरत सम्यग्दृष्टि तो जघन्यपात्र हैं और देशव्रतीजन मध्यमपात्र हैं और मुनिजन उत्तमपात्र हैं। जो मोक्षमार्ग में लगे हुए हैं, ऐसे पात्रों को चार प्रकार का दान करना, यही है मोक्षमार्ग विषयक उत्तम त्यागधर्म। त्याग भावना में शक्तितस्त्याग व दान करते हुए बड़ा विवेक होना चाहिए। हम पात्र को आहार दें तो ऐसा दें कि आहार का प्रयोजन है शरीर स्वस्थ रहे। यह पात्र अपने धर्म स्वाध्याय सबमें सावधान रह सके। केवल स्वाद दिलाने का प्रयोजन नहीं है, अथवा बहुत ऊँचे-ऊँचे पकवान 10-20 बनवायें और खूब खिलायें, यह प्रयोजन नहीं है। इस प्रयोजन से देखिए कि शरीर स्वस्थ रहे, बल बढ़े, सावधानी रहे, अपने काम में यह सावधान रह सके, ऐसी सब बातों को निरख कर आहार दान दिया जाता है। दूसरा दान शास्त्रदान, ज्ञानदान है। उससे बढ़कर और क्या दान कहा जाये, जिस दान के प्रताप से यह जीव अज्ञानांधकार को दूर करे और ज्ञानप्रकाश पाये, जिससे संसार के बंधन अनन्तकाल तक के लिए 0689_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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