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________________ परित्याग करो। सम्यग्ज्ञान की परीक्षा करके ग्रहण करो, अपनी संतान को पढ़ाओ, अन्य लोगों को भी विद्या का अभ्यास कराओ। भगवान् के परमागम के सेवन के प्रभाव से मेरी आत्मा राग-द्वेष आदि से भिन्न अपने ज्ञायकस्वभाव में ठहर जाय, रागादि के वशीभूत नहीं हो, वही मेरी आत्मा का हित है। ‘परमात्मप्रकाश' ग्रंथ में श्री योगीन्दुदेव ने आत्मा के बारे में लिखा है जो अनादि है, अनन्त है, जो देहरूपी मंदिर में बसता है, जिसका केवलज्ञान से चमकता हुआ शरीर है, वह दिव्य आत्मा ही परम आत्मा है। यह बात सन्देहरहित है। जो देह में रहता हुआ भी अनिवार्यतः देह को बिलकुल ही नहीं छूता है तथा जो देह के द्वारा भी नहीं छुआ जाता है, वह परम आत्मा है, ऐसा तुम जानो। __ जिस प्रकार नेत्रहीन व्यक्ति सूर्य को नहीं देख पाता, उसी प्रकार ज्ञानहीन व्यक्ति जिसे स्व–पर का भेदज्ञान नहीं है, वह अपनी आत्मा को नहीं पहचान पाता। वह हितमार्ग को छोड़कर अहितमार्ग को अंगीकार करता है। इसलिये सभी को निरन्तर अन्तरोन्मुखी दृष्टि से स्वाध्याय करते रहना चाहिये। जिस प्रकार गाय को बाँधने का झूटा एक ही चोट में गहरा नहीं जाता है, उसी प्रकार ज्ञान को स्थिर करने के लिये निरन्तर स्वाध्याय करना अनिवार्य है। विद्या (ज्ञान) के विषय में किसी ने लिखा है - विद्या (ज्ञान) सौ बार के अभ्यास से आती है और हजार बार के अभ्यास से स्थिर रहती/होती है। यदि उसे हजार बार हजार से गुणित किया जा सके, तो वह इस जन्म में तथा जन्मान्तर में भी साथ ही नहीं छोड़ती। अन्य मत में आता है-'जो सतत स्वाध्याय करते हैं, उनका मार्गदर्शन स्वयं सरस्वती करती है। न्यायशास्त्र के वैदिक विद्वान् ‘कणाद' महर्षि के विषय में कहा जाता है कि वे हर समय स्वाध्याय (ग्रन्थावलोकन) में दत्त-चित्त रहते थे। 10 672
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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