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________________ अतः कभी भी पाप के कार्य नहीं करना चाहिये। एक आचार्य ने लिखा है पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवः । फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।। मनुष्य पुण्य के फल को तो चाहता है, परन्तु पुण्य करना नहीं चाहता। पाप का फल नहीं चाहता, लेकिन रात-दिन पाप में लगा रहता है। पर ध्यान रखना, पाप के बीज बोकर कोई भी पुण्य की फसल नहीं काट सकता। एक बार पुण्य और पाप दोनों एक दूसरे से मिले। दोनों में एक दूसरे से श्रेष्ठता की चर्चा चल पड़ी। पुण्य और पाप दोनों अपने आप को दूसरे से श्रेष्ठ कह रहे थे। बात विवाद में बदल गई। पुण्य ने पाप से कहा-"तुम इतने नीचे हो कि लोग तुम्हारा नाम लेना भी अच्छा नहीं मानते, फिर भी तुम अपने आप को मुझसे महान कहते हो? देखा, जगत में मेरी कितनी प्रतिष्ठा है। सारी दुनियाँ मुझे चाहती है।" पाप ने कहा-" दुनियाँ भले ही तुम्हें चाहती है, पर साथ मेरा देती है।" चाहते पुण्य को हैं, पर करते हैं पाप। यह तो "पुण्य की चाह और पाप की राह" वाली बात है। तीनों लोकों में सभी जीव सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं। परन्तु सुख के कारणभूत धार्मिक कार्यों से विमुख रहते हुये दुःख के कारणभूत पापों में ही लगे रहते हैं। पर ध्यान रखना, आचार्यों का कहना है, "नायुक्तं क्षीयते कर्म" आपने अगर कोई पाप किया है तो वह बिना भोगे नष्ट नहीं होता। कहावत है-“पाप और पारा कभी पचता नहीं। आदिनाथ भगवान् के जीव ने कभी पूर्व पर्याय में किसी बैल के मुँह में कुछ देर के लिये मुसिका बांधी थी जिससे ऐसा अंतराय बंध गया कि छ: महिने तक उन्हें आहार उपलब्ध नहीं हो सका। सीता जी ने कभी पूर्व पर्याय में किसी निर्दोष निग्रंथ मुनिराज पर लांछन लगाया था, उसका परिणाम यह निकला कि सीता जी को स्वयं भी निर्दोष होने पर लांछित होना पड़ा। श्रीपाल चरित्र को देखें। श्रीपाल राजा के जीव ने अपने पूर्व भव में श्रीकण्ठ राजा की पर्याय में जितने प्रकार के पाप-पुण्य किए, वह सभी सिनेमा की रील की तरह, चलचित्र की तरह उनके जीवन में झलकने लगे 0 670
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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