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________________ कुशील के मार्ग का उपदेश नहीं देना, कोई अन्य जो कुशील के मार्ग पर चलता हो, उसकी अनुमोदना नहीं करना, बालिका स्त्री को देखकर उस पर पुत्रीवत् निर्विकार बुद्धि करना। यौवनरूप हाथी पर बैठी, सौंदर्यरूप जल में जिसके सभी अंग डूब रहे हों, ऐसी रूपवती स्त्री में बहिन के समान निर्विकार बुद्धि करना चाहिए। जो शीलवान हैं, उनकी दृष्टि स्त्रियों पर जाते ही उनके नेत्र बंद हो जाते हैं। जो स्त्रियों से वचनालाप करेगा, स्त्रियों के अंगों को देखेगा, उसका शील अवश्य भंग होगा। इसलिये जो विवेकी गृहस्थ हैं, उनके तो एक अपनी स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों की संगति, अवलोकन, वचनालाप का त्याग होता है तथा अन्य स्त्रियों की कथा का विचार स्वप्न में भी नहीं आता है। एकान्त में माता, बहिन, पुत्री के साथ भी नहीं रहते हैं। यदि हम शीलव्रत की साधना करना चाहते हैं, तो हमारी दृष्टि में मात्र तीन ही नाते रहना चाहिये। माता का, बहिन का और पुत्री का। शिवाजी के जीवन की एक घटना है। शिवाजी के दरबार में एक युवा महिला आई । उसने कहा – 'मेरी प्रार्थना पर ध्यान दिया जाय । आप राजा हैं। मैं एक कामना लेकर आई हूँ कि मुझे आपके-जैसा एक पुत्र प्राप्त हो।' शिवाजी ने क्षणभर विचार किया, फिर तुरन्त सिंहासन से उठे और उम्र में स्वयं से छोटी होने के बावजूद उस महिला के चरण स्पर्श करके कहा कि – 'माँ! आज से आप मुझे ही पुत्ररूप में स्वीकार करें। आज से मैं आपका पुत्र हूँ। यही चाहती थीं न आप, मेरे-जैसा पुत्र? मैं ही हूँ आपका पुत्र।' साहित्यकार जैनेन्द्रकुमार ने अपने एक उपन्यास में लिखा है-'हम अपने पिता की जीवनसाथी को माँ मानते हैं और अब तो अपने बच्चों की माँ भी "माँ" मालूम पड़ने लगी है।' यह ही हमारा शीलव्रत है। हम अपने पिताजी की जीवनसाथी को माँ मानते हैं, जिस दिन अपने बच्चों की "माँ" _0_6650
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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