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________________ | विनयसम्पन्नता भावना । रत्नत्रयधारी मुनियों के, चरणों में जो झुकता है। देव धरम संयमी, विनय से, कर्मास्रव झट रुकता है।। विनय मोक्ष का द्वार कहा, यह निराकार तन का दाता।। विनय से सम्पन्न जीव ही, अतिशय जन्म के दस पाता।। जो रत्नत्रयधारी मुनियों के चरणों में झुकता है और देव, धर्म, संयमी की विनय करता है, उस जीव का कर्मास्रव तुरन्त रुक जाता है, क्योंकि विनय को मोक्ष का द्वार कहा है। यह विनय निराकर तन अर्थात् सिद्ध पद को प्रदान करनेवाला है। विनय से सम्पन्न जीव ही जन्म के दश अतिशय को प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र (मोक्षमार्ग) और देव-शास्त्र-गुरु के प्रति विनय रखना 'विनयसम्पन्नता है। विनय पाँच प्रकार की कही गई है- दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय। दर्शन विनय- सम्यक् श्रद्वान में विनय होना, सो दर्शन विनय है। संसार में रुलनेवाले जीवों को एक सम्यक्त्व का ही सहारा है। सम्यक्त्व के बिना संकटों से मुक्ति पाने का अन्य कोई उपाय नहीं है। जहाँ सम्यक्त्व हो जाता है, शुत आशय बन जाता है, यथार्थ श्रद्धान हो जाता है, यह कि मैं ज्ञानानन्द-स्वभाव मात्र हूँ, मैं अपनी सत्ता से अपने आप में स्वयं वैसा हूँ, इस बात का जिन्हें श्रद्वान हो जाता है, ऐसे पुरुषों को यह 10 651_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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