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________________ यथार्थ स्वरूप दिखाई देता है। इस चमड़े के शरीर का रूप मेरा रूप नहीं है। इस देह का रूप क्षण-क्षण में विनाशशील है। एक दिन आहार-पान नहीं करे तो महाविरूप दिखने लगता है। इस देह का रूप समय–समय विनशता रहता है। यदि बुढ़ापा आ जाये तो अभद्र/भयकारी दिखने लगता है। यदि रोग आदि आ जाये तो किसी के देखने लायक, छूने लायक भी नहीं रह जाता है। इस रूप का गर्व कौन ज्ञानी करता है? यह तो एक ही क्षण में अंधा हो जाये, काना हो जाये, कुबड़ा, लूला, विद्रूप हो जाये, इसका कौन ठिकाना? यहाँ रूप का गर्व करना बड़ा अनर्थ है। शरीर बलवान हो, सुन्दर हो या कुरूप हो, उन सबसे आत्मा भिन्न है। आत्मा का चेतन-स्वरूप ही सुन्दर है। परन्तु अपने सुन्दर निजरूप को न देखकर अज्ञानी शरीर की सुन्दरता से अपनी शोभा मानते हैं और शरीर के कुरूप होने पर अपने को हीन समझते हैं। उसे आचार्य समझाते हैं। कुरूप शरीर केवलज्ञान प्राप्त करने में कोई विघ्न नहीं करता। सुन्दर रूप वाले होकर भी अनेक जीव पाप करके नरक चले गये। शरीरादि संयोग और संयोगी रागादि को अपना मानना इस जीव की बहुत बड़ी भूल है। यदि सुन्दर व स्वस्थ शरीर मिला है, तो उसका अहंकार मत करो, बल्कि उस शरीर के माध्यम से रत्नत्रय धर्म की साधना करके आत्मा का कल्याण करो। ये आठ प्रकार के मद सम्यग्दर्शन को दूषित कर नष्ट कर देते हैं, अर्थात् मलिन कर देते हैं। इसलिये कभी भी किसी प्रकार का अहंकार मत करना। रावण ने अहंकार कर पूरे परिवार सहित सोने की लंका को नष्ट कर दिया। दुर्योधन अहंकार से राजसत्ता पाने के लिये अपने पिता धृतराष्ट्र की आँखों से स्पप्न देखता रहा और उस स्वप्न को बल देने के लिये गांधार नरेश शकुनी मामा के रूप में मिल गये, जिनके लिये कंधे पर हाथ रखकर हाँ-में-हाँ मिलाने वाला अंगराज कर्ण भी जुड़ गया। इन 10 639_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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