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________________ आठ मद ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतसमयः ।। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' ग्रंथ में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है- जिनका मद नष्ट हो गया है, ऐसे गणधर देव ने मद आठ प्रकार के कहे हैं – (1) ज्ञान (2) पूजा (3) कुल (4) जाति (5) बल (6) ऋद्धि (7) तप (8) शरीर। इन आठों का आशय कर जो मान होता है, उसे स्मय (मद) कहते हैं। 'छहढाला' ग्रंथ में पंडित श्री दौलतराम जी ने लिखा है __ पिता भूप व मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने। मद न रूप को, मद न ज्ञान को, धन बल को मद भानै।। तप को मद न, मद जु प्रभुता को करै न, सो निज जानै। __ मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठानै।। 1. ज्ञानमद – शास्त्रज्ञान, श्रुतज्ञान का गर्व नहीं करना चाहिये। इस इन्द्रियजनित ज्ञान का क्या गर्व करना ? एक क्षण में वात, पित्त, कफ आदि के घटने-बढ़ने से चलायमान हो जाता है। जो यथार्थ ज्ञानी होते हैं, वे कभी ज्ञान का मद नहीं करते। जो अपने चैतन्य स्वभाव को नहीं जानते और परपदार्थों में यह मानते हैं कि 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है', वे जीव शास्त्रज्ञान होने पर भी अज्ञानी ही हैं। 'पर' मैं अहम्बुद्धि होना मोक्षमार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञान के अहंकार से न तो पारमार्थिक और न ही लौकिक उन्नति होना संभव है। 10_6330
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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