SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना यह आत्मा कर्मों की मार अनादिकाल से सहन करता आ रहा है। अब अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त इस मनुष्यपर्याय में अपने-आपको पहचान लो कि मैं कौन हूँ? धर्म का मार्ग ही सारी दुनियाँ में सत्य का मार्ग है। अतः इस पर चलने का पुरुषार्थ करो। बिना सम्यग्दर्शन के कभी मोक्ष नहीं होता। एक व्यक्ति ने यह संकल्प ले लिया कि मैं तब तक पानी में कदम नहीं रखूगा जब तक कि तैरना नहीं सीख लूँ । अब बताओ- जब वह पानी में कदम ही नहीं रखेगा, फिर तैरना कैसे सीखेगा? यही दशा आज के संसारी प्राणी की है। वह धर्म करता नहीं, परन्तु पाप से छुटकारा चाहता है। यदि तैरना सीखना है, तो पानी में उतरना ही पड़ेगा। आत्मोन्नति में अग्रसर होने के लिए अरहंत भगवान् ही हमारे आदर्श हैं। 'योगसार' ग्रंथ में आचार्य योगीन्दु देव ने लिखा है जिण सुमिरहु जिण चिंतहु, जिण झायहु सुमणेण। सो झायंतहँ परम पउ, लब्भई एक्क-खणेण।। शुद्ध मन से जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण करो और जिनेन्द्र भगवान् का ध्यान करो। उनका ध्यान करने से एक क्षण भर में परमपद प्राप्त हो जाता है। भगवान् की भक्ति किसी लौकिक वाँछा से नहीं करना चाहिये। भगवान् की भक्ति करते समय उनके ही समान वीतराग बनने की भावना भाना चाहिये। __धर्म तो अन्तरात्मा की अनुभूति का विषय है। यह अनुभूति कब होगी? जब राग-द्वेष छोड़ेंगे, तब ही 'आत्मधर्म' यानी वास्तविक धर्म प्रकट होगा। राग-द्वेष को छोड़ना यही सच्चा धर्म है, यही भगवान् की सच्ची भक्ति है। राग-द्वेष का त्याग किये बिना परमात्म पद नहीं मिल सकता। यह आत्मा अनन्त शक्ति का धारक होकर भी अपनी शक्ति को भूल रहा है। अपनी शक्ति को भूलने के कारण ही यह संसार में भटक रहा है। अपनी शक्ति को न पहचानकर कर्मजनित दुःखों को भोग रहा है और संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःखी हो रहा है। अगर यह अपनी शक्ति को पहचानकर रत्नत्रय धर्म का पालन करे, तो सर्व कर्मों के बंधन तोड़कर स्वतंत्र एवं सुखी हो जावे। 0 61 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy