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________________ था। विष्णुकुमार द्वारा महान वात्सल्यपूर्वक सात सौ मुनियों की तथा धर्म की रक्षा हुई, अतः वह दिन रक्षापर्व के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह पर्व रक्षाबन्धन के नाम से आज भी मनाया जाता है। मुनियों पर आया उपसर्ग दूर होने पर विष्णुकुमार ने वामन पण्डित का वेष छोड़कर फिर से मुनिदीक्षा लेकर मुनिधर्म धारण किया और अल्पकाल में ही केवलज्ञान प्रगट करके मोक्ष पाया। सभी को धर्मात्मा साधर्मीजनों को अपना समझकर उनके प्रति अत्यन्त प्रीतिपूर्वक वात्सल्य रखना चाहिये, उनके प्रति आदर-सम्मान पूर्वक हर प्रकार की मदद करनी चाहिये और उनके ऊपर कोई संकट आये तो अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसका निवारण करना चाहिए, इस प्रकार धर्मात्मा के प्रति अत्यन्त प्रीति सहित आचरण करना चाहिए। जिसे धर्म की प्रीति होती है, उसे धर्मात्मा के प्रति प्रीति होती है। सच्चे सम्यग्दृष्टि अन्य ६ गर्मात्मा के ऊपर आये संकट को देख नहीं सकते। संसारी जीवों की जैसी प्रीति अपने स्त्री-पुत्र धनादि में होती है, वैसी प्रीति धर्म, धर्मात्मा एवं धर्मायतनों में होना ही "धर्म वात्सल्य है।" ऐसा यथार्थ धर्मवात्सल्य सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होता है। मुनिराज विष्णुकुमार की भी इसी प्रकार प्रशंसा की गई है। वात्सल्य का अर्थ है साधर्मियों के प्रति करुणाभाव । "वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम्" जैसे गाय बछड़े पर स्नेह करती है, उसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना चाहिये। वात्सल्य एक स्वाभाविक भाव है। साधर्मी को देखकर उह्वास की बाढ़ आना ही चाहिए। सम्यग्दृष्टि का आचरण सुई के समान होता है, केंची के समान नहीं; जो जोड़ने का कार्य करता है, काटने का नहीं। वात्सल्य की सच्ची उपलब्धि यथायोग्य जोड़ने की है, तोड़ने की नहीं। इसलिये आचार्य सोमदेव महाराज ने लिखा है- धर्मात्मा पुरुषों के प्रति उदार होना, उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, आदर-सत्कार L 592 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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