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________________ राजकुमार का मन तो वैराग्य में दृढ़ है, अतः उनके आगमन में दूसरा ही कोई हेतु होना चाहिये । वारिषेण मुनि के आते ही उनके गृहस्थाश्रम की बत्तीस रानियाँ भी दर्शन के लिए आईं। राजमहल के अद्भुत वैभव को और अत्यन्त सुन्दर 32 रूप-यौवनाओं को देखकर पुष्पडाल को आश्चर्य हुआ। वे मन-ही-मन में सोचने लगे- “अरे! ऐसा राज-वैभव और ऐसी रूपवती 32 रानियाँ होने पर भी यह राजकुमार उनके सामने भी नहीं जाता, उनको छोड़ने के बाद उन्हें याद भी नहीं करता और आत्मा को ही साधने में यह अपना चित्त लगाये रखता है । और मैं तो एक साधारण स्त्री का मोह भी मन से नहीं छोड़ सका। अरे रे, बारह वर्ष का मेरा साधुपना बेकार चला गया । " तब वारिषेण मुनि ने पुष्पडाल से कहा- "हे मित्र ! अब भी यदि तुम्हें संसार का मोह हो तो तुम यहीं रह जाओ। इस सारे वैभव को भोगो ! अनादि काल से जिस संसार के भोगने पर भी तृप्ति नहीं हुई, अब भी तुम उसे भोगना चाहते हो तो लो, यह सब तुम भोगो।" वारिषेण की बात सुनकर पुष्पडाल मुनि अत्यन्त शर्मिन्दा हुए, उनकी आँखें खुल गईं, उनकी आत्मा जाग उठी। राजमाता चेलना भी अब सबकुछ समझ गईं और धर्म में स्थिर करने के लिए उन्होंने पुष्पडाल से कहा- "अहो मुनिराज ! आत्मकल्याण करने का ऐसा अवसर बारम्बार नहीं मिलता। इसलिए अपना चित्त मोक्षमार्ग में लगाओ। यह संसार तो अनन्तबार भोग चुके हो, उसमें किंचित् भी सुख नहीं है. । इसलिए उससे ममत्व छोड़ कर मुनिधर्म में अपना चित्त स्थिर करो।” वारिषेण मुनिराज ने भी ज्ञान - वैराग्य का बहुत उपदेश दिया और कहा “हे मित्र! अब तुम अपने चित्त को आत्मा की आराधना में स्थिर करो और मेरे साथ मोक्षमार्ग पर चलो।" तब पुष्पडाल ने सच्चे हृदय से कहा"प्रभो! आपने मुझे जिनधर्म से पतित होने से बचा लिया है और सच्चा 569 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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