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________________ वह पुत्र में कोई छोटा-बड़ा दोष देखकर उसे प्रसिद्ध नहीं करती, परन्तु ऐसा उपाय करती है कि उसके गुण की वृद्धि हो। उसी प्रकार धर्मात्मा भी धर्म में कोई अपवाद हो - ऐसा कार्य नहीं करते, परन्तु धर्म की प्रभावना हो, वही करते हैं। यदि कभी किसी गुणवान धर्मात्मा में कदाचित् दोष आ जाय, तो उसे गौण करके उसके गुणों को मुख्य करते हैं और एकान्त में बुलाकर उसे प्रेम से समझाते हैं, जिससे उसका दोष दूर हो और धर्म की शोभा बढ़े। उसी प्रकार जब सभी लोग चले गये, तब बाद में जिनभक्त सेठ ने भी उस सूर्य नामक चोर को एकान्त में बुलाकर उलाहना दिया और कहा“भाई! ऐसा पापकार्य तुम्हें शोभा नहीं देता । विचार तो कर कि तू यदि पकड़ा जाता तो तुझे कितना दुःख भोगना पड़ता? तथा इससे जैनधर्म की भी कितनी बदनामी होती ? लोग कहते कि जैनधर्म के त्यागी भी चोरी करते हैं। इसलिए इस धन्धे को तू छोड़ दे।" वह चोर भी सेठ के ऐसे उत्तम व्यवहार से प्रभावित हुआ और स्वयं के अपराध की माफी माँगते हुये उसने कहा- "सेठ जी ! आपने ही मुझे बचाया है। आप जैनधर्म के सच्चे भक्त हो । लोगों के समक्ष आपने मुझे सज्जन धर्मात्मा कह कर पहचान करायी, अतः मैं भी चोरी छोड़ कर सच्चा धर्मात्मा बनने का प्रयत्न करूँगा । सच में जैनधर्म महान है और आपके जैसे सम्यग्दृष्टि जीवों को ही वह शोभा देता है । दूसरों के गुणों को प्रकट करना और अपने दोषों के प्रति उदासीन न होना, यह उपगूहन अंग है। दूसरों के गुणों के अवलोकन की हमारी दृष्टि होना चाहिये । यदि हम गुणावलोकन की दृष्टि रखते हैं तो हम अवगुणों में भी गुणों को जाग्रत कर सकते हैं। एक नगर में एक सेठ जी रहते थे। उनके पास सम्पदा की कोई कमी नहीं थी, किन्तु वे चन्दा न देने के लिये विख्यात थे । कोई भी उनके 552 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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