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________________ पालन-पोषण भी करे। रोग आदि व्याधियों से भी उसकी सुरक्षा करे। परन्तु अपनी सारी शक्ति इसी की सेवा में न लगा दे, इस नौकर से आत्मकल्याण का काम अवश्य लेवे। मन से आत्मचिन्तन करे। नेत्रों से भगवान् का दर्शन, शास्त्रों का स्वाध्याय, गुरु का दर्शन करे। मुख से भगवान् की स्तुति करे, शास्त्र पाठ करे, गुरु स्तवन करे। हाथों से भगवत् पूजन, दान, पर-उपकार करे। पैरों से प्रतिदिन मंदिर जावे, गुरु के पास जावे, तीर्थयात्रा करे। कानों से शास्त्र का उपदेश, गुरु की शिक्षा का श्रवण करता रहे। शरीर को जड़ पौद्गलिक समझकर उससे मोह-ममता न करे, बल्कि इसके माध्यम से रत्नत्रय की साधना करे। रत्नत्रय धारण कर लेने पर यह अपवित्र शरीर भी पूज्यता को प्राप्त कर लेता है। सम्यग्दृष्टि हंस की भांति दूध को ही ग्रहण करता है। वह रत्नत्रय के धारी मुनिराजों की विनय करता है और अपने मलिन तन में चारित्र का कमल खिलाने का प्रयास करता है। शरीर की अपवित्रता को लक्ष्य में न रखकर जो शरीर के माध्यम से आत्मा का हित करता है, वही अपने मनुष्य-जन्म को सफल व सार्थक करता है। अतः रत्नत्रयधारी मुनिराजों को देखकर ग्लानि रहित होकर उनके चारित्र की प्राप्ति की भावना करनी चाहिये । जुगुप्सा करने से आत्मा की सम्पदा छिन जाती है। निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने से आत्मा की सम्पदा सुरक्षित रहती है। जीवन में कभी किसी से ग्लानि नहीं करनी चाहिये, बल्कि मुनिराजों की महिमा-गरिमा, साधना, तपस्या को जानकर उसे स्वीकार कर उस रूप ढलने का पुरुषार्थ करके स्वयं के परमात्मा को प्रगट करना चाहिये। 0 510_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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