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________________ कहता है। जो अंदर से पूर्ण है, "वह आधा भरा है" कहता है। यह स्वयं की परिणति का द्योतक है। अंतर में जो होता है, वह ही ध्वनित होता है। इसलिए मर्म को देखने की प्रवृत्ति होनी चाहिये । चर्म पर तो चर्मकार की नजर जाती है। अभी ऊपर का चर्म सुंदर लग रहा है, अगले क्षण कैसा होगा, इसका किसको पता? आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है- धर्म पवित्र है, अनादि-अनिधन है। धर्म शरीर के पीछे नहीं, धर्म आत्मा के पीछे है। धर्म में आत्मा है, आत्मा में धर्म है। शरीर में आत्मा होते हुये भी शरीर को कभी भी धर्म नहीं माना है। यह शरीर धर्म का साधक तब बन सकता है, जब वह विषय-कषाय से ऊपर उठ जाता है, तो धर्म के साथ-साथ उसकी भी पूजा हो जाती है। रत्नत्रय धारण करने पर शरीर भी पवित्र हो जाता है। स्वभाव से तो यह काया अशुचिमय है, अपवित्र है। भले ही आप इसको लाइफबॉय लगाओ, पियर्स सोप लगाओ, लक्स, हमाम आदि तमाम साबुनें लगाओ, लेकिन एक घन्टे के बाद यह अपना गुणधर्म बता देगा और आपका जीवन इसी में बीत गया है। "देह परसतें होय अपावन, निशदिन मल जारी।" देह तो अपावन है। यदि इसे पावन बनाने का लक्ष्य है, तो रत्नत्रय को धारण करना आवश्यक है। रत्नत्रय को धारण कर लेने पर यह अशुचि शरीर भी पूज्यता को प्राप्त हो जाता है। अतः कभी भी मुनिराजों के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना। सीता जी के जीव वेदवती ने ब्राह्मण की अवस्था में नगर में आकर कहा था कि जंगल में मैंने मुनिराज को अकेली आर्यिका से बात करते देखा है। अहो! एक निग्रंथ योगी का अपवाद किया था, फलस्वरूप आज सारे विश्व में सीता का अपवाद हो गया, कि रावण के यहाँ होकर आई है सीता। कुलवंती होने पर भी कर्म किसी को नहीं छोड़ते हैं। जीवन में ध्यान रखना, कभी ग्लानि का भाव मत रखना, किसी धर्मात्मा के मलिन 5010
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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