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________________ आचार्य कहते हैं- शुद्ध निश्चयनय से यह भले प्रकार जान ले कि मैं आत्मद्रव्य हूँ, सिद्ध के समान हूँ, अपने ही स्वभाव में परिणमन करने वाला हूँ। रागादि भावों का कर्ता नहीं हूँ, सांसारिक सुख व दुःख का भोगने वाला नहीं हूँ। मैं केवल अपने ही शुद्ध भाव का कर्ता व शुद्ध आत्मिक आनंद का भोक्ता हूँ, मैं आठ कर्मों से शरीरादि से व अन्य सर्व आत्मादि द्रव्यों से निराला हूँ। तथा अपने गुणों से अभेद हूँ। सम्यग्दृष्टि आत्मा का ऐसा विचार करे, समझे जैसा श्री कुन्द-कुन्दाचार्य ने समयसार में कहा है जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुठं अणण्णयं णियदं । अविसेसमसजुत्तं तं सुद्धणयं वियसाणीहि।। जो कोई अपने आत्मा को पांच तरह से एक अखण्ड शुद्ध द्रव्य समझे, उसे शुद्धनय जोनो। 1. यह आत्मा अबद्ध स्पष्ट है-न तो यह कर्मों से बंधा है और न स्पर्शित है। 2. यह अनन्य है-जैसे कमल जल से निर्लेप है, वह सदा एक आत्मा ही है, कभी नारक, देव, तिर्यंच नहीं है। जैसे मिट्टी अपने बने बर्तनों में मिट्टी ही रहती है। 3. नियत या निश्चल है- जैसे पवन के झकोरे के बिना समुद्र निश्चल रहता है। वैसे यह आत्मा कर्म के उदय के बिना निश्चल है। 4. यह अविशेष या सामान्य है-जैसे सुवर्ण अपने चिकने आदि गुणों से अभेद व सामान्य है। वैसे ही यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि अपने ही गुणों से अभेद या सामान्य है, एक रूप है। 5. यह असंयुक्त है-जैसे पानी स्वभाव से गर्म नहीं है, ठंडा है, वैसे यह आत्मा स्वभाव से परम वीतराग है, रागी, द्वेषी, मोही नहीं है। आचार्य योगीन्दुदेव 'योगसार' ग्रंथ मैं कहते हैं कि अपनी आत्मा व जिनेन्द्र प्रभु में भेद नहीं है सुद्धप्पा अरुजिणवरहं भउ म किंपि वियाणि । मोक्खहं कारणे जाइया णिच्छई एउ विजाणि ।।20।। 0 383_0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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