SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीने से मानव परवश हो जाता है, उसे अपने तथा पर के स्वरूप का भान नहीं रहता, वह हिताहित के विवेक से शून्य हो जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से जीव को तत्व – अतत्व का भेद - विज्ञान नहीं हो पाता। वह संसार के विकारों में उलझ जाता है आचार्य समझा रहे हैं कि अपने आप पर स्वयं दया करके मोह को छोड़ने का प्रयास करो। जहर दो तरह का होता है एक मीठा जहर और एक कड़वा जहर | कड़वा जहर तो कोई भी पीते ही थूक देगा, लेकिन मीठा जहर ऐसा है कि पीते ही चले जाना आनन्ददायक लगता है। जब जीवन समाप्त होने लगता है, तब मालूम पड़ता है कि यह तो जहर था। मोह ऐसा ही मीठा जहर है। जिसे संसारी प्राणी थूकना नहीं चाहता। इसकी मिठास इतनी है कि मृत्यु होने तक यह नहीं छूटता और दूसरे जीवन में भी प्रारंभ हो जाता है। भव-भव में रुलाने वाले इस मोह के प्रति सचेत हो जाना चाहिये, तभी मुक्ति की ओर जाने का रास्ता प्रारंभ होगा तभी अपने सत्य स्वरूप (आत्म तत्व) की प्राप्ति होगी। अपने-पराये को जानकर पराये के प्रति मोह छोड़ना ही हितकर है। शरीर अपना नहीं है, अपना तो आत्म तत्त्व है। यदि यह ज्ञान हो जाये, तो भी कार्य आसान हो जायेगा। स्व को जानने की कला के माध्यम से पर के प्रति उदासीनता आना संभव है। एक महिला थी और उसके छह बच्चे थे। उनका आग्रह था कि माँ! हमें मेला दिखाओ। उस महिला ने सोचा कि चलो, बच्चों का आग्रह है तो दिखा लाते हैं, किन्तु ये अभी बहुत छोटे हैं, इसलिये इन्हें प्रशिक्षण देना आवश्यक है। और वह उन्हें प्रशिक्षित कर देती है कि देखो, एक दूसरे का हाथ पकड़े रहना, मेले में भीड़ रहती है, कहीं गुम न हो जाना, अन्यथा हम नहीं ले जाएंगे। सभी ने कह दिया कि आप जैसा कहोगी वैसा ही करेंगे, पर हमें मेला दिखा दो। वह महिला सब बच्चों के साथ मेला में जा पहुँची। सारा मेला घुमा दिया, झूला झुलवाया, खिलौने खरीदे, मिठाई खरीदी, बच्चों को बहुत आनन्द आया। शाम हो गई, तो उसने सोचा कि अब घर लौटना चाहिये। उसने बच्चों को देखा कि कहीं कोई गुम तो नहीं गया। गिनकर देखा तो छ: के स्थान पर पाँच ही थे। दुबारा गिना तो भी पाँच थे। अब वह महिला घबरा गई। इतना 0_361_0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy