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________________ लट्ठमलट्ठा होने लगा। कैसा विचित्र नाटक है यह। तो यह मनुष्य बेकार की बातों में अपना जीवन गँवा देता है। शान्ति से, समता से एक लक्ष्य बनाकर आत्म-कल्याण करने की बात नहीं सोचता। इन व्यर्थ की कषायों को छोड़ दो। हम सब एक-समान हैं, सब चैतन्य स्वरूप हैं। सब जीवों में समता-परिणाम रखो। आत्मा चैतन्यस्वरूप है। उसे जानने का प्रयास करो। व्यवहार धर्म की क्रियाओं से, संयम से अपने मन को पवित्र बनाओ, तभी शरीर से भिन्न आत्मा समझ में आती है। केवल शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है, कहने मात्र से आत्मा के दर्शन नहीं होते। जैसे लोग कह देते हैं कि फूफ ग्राम या अमुक ग्राम यहीं तो धरा है नाक के सामने । ऐसा बोलते हैं। और जब चलो, तब पता पड़ता है कि ऐसे जाना पड़ता है। गप्प करने में, गाल बजाने में तो कोई देर नहीं लगती। अन्तस्तत्त्व यह ही तो है। और जब उपयोग में करने बैठो, तब पता पड़ता है कि क्या होता है, किस तरह से पार हुआ जाता है, कैसे क्या होता है। एक लड़का था। तो, उसे शौंक हुआ कि हमें तो तालाब में तैरना सीखना है। तो वह गया तालाब में तैरने के लिये, सो डूबने लगा। खैर, किसी ने उसे डूबने से बचा लिया, पर उसके मन में यह बात बनी रही कि हमें तो तैरना सीखना है। तो माँ के पास जाकर बोला-माँ! मुझे तैरना सिखा दो। तो माँ बोली-अरे बेटा! चलो किसी तालाब में, तुम्हें वहाँ तैरना सिखा दूंगी। तो वह लड़का बोला-माँ! मुझे पानी न छूना पड़े और तैरना आ जाये। माँ बोली-बेटा! मैं तुझे कितना भी सिखा दूँ कि पानी में ऐसे हाथ चलाना,, ऐसे पैर चलाना पर तूं जब भी पानी में जायेगा तो डूब जायेगा। पानी न छूना पड़े और तैरना आ जाये, यह कभी सम्भव नहीं। यह तो एक प्रयोगसाध्य बात है। अरे उसका प्रयोग करें और प्रयोग करने में बहुत-सी प्रवृत्तियाँ करनी होंगी। उन्हीं प्रवृत्तियों को व्यवहार धर्म कहते हैं। जिसको स्वभावदृष्टि करने का काम है, उसे तो सबकुछ करना होता है और जिसे केवल गप्प मारने का काम है, उसको तो केवल गप्प ही मारना है। तो, भाई! तन जाय, मन जाय, धन जाय, वचन जाय, प्राण जाय कुछ भी जाये, पर हर तरह से तैयार रहें कि हमें तो शुद्धोपयोग की प्राप्ति करना है और su 353 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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