SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह उपदेश सुनने के लिये विनयासन से बैठा हुआ था और कहाँ वीरासन से होकर बैठ गया। अब राजा ने शत्रुओं को देख लिया तो उठ खड़ा हुआ और उसने अपनी तलवार निकाल ली । साधु जी बोले कि, राजन्! क्या कर रहे हो? राजा बोला कि, महाराज ज्यों-ज्यों दुश्मन आ रहे हैं, त्यों-त्यों मेरा दिल भड़क रहा है। मैं शत्रुओं को गर्क कर दूँगा । साधु जी बोले - राजन् ! तुम ठीक कह रहे हो कि अपने दुश्मनों को गर्क करने जा रहे हो, परन्तु एक शत्रु तो तुम्हारे अन्दर ही पड़ा हुआ है, उसका भी तो दलन करो। राजा बोला- अरे ! मेरे अन्दर भी कोई दुश्मन है ? साधु जी बोले - राजन् तुम्हारा दुश्मन दूसरे को दुश्मन मानने का विकल्प है। तुम्हारा शत्रु तुम्हारा मोह है, विकल्प है। यह विकल्प ही तुम्हें चैन नहीं लेने देता। दूसरे शत्रु हैं, ऐसा ख्याल छोड़ दो तो कोई शत्रु नहीं है। दूसरा कोई तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता। ऐसा ख्याल छोड़ दो कि फलाना मेरा दुश्मन है। राजा को साधु जी की बात समझ में आ गई, तो वह शान्त होकर, मुनि दीक्षा लेकर, मूर्ति की भांति बैठ जाता है। दुश्मन आते हैं और राजा को मुनिमुद्रा में देख प्रणाम कर वापस चले जाते हैं। बतलाओ कि यदि वे राज्य हड़प लेते तो विजयी थे या यों ही शान्त मुद्रा में रहकर सत्यविजयी बने तो विजयी हैं? अरे! राज्य हड़प लेने से मोह हो जाता और उन्हें दुःख होता, आकुलतायें - व्याकुलतायें सदा बनी रहतीं। अपने आप में विश्वास करो कि मैं आत्मा ज्ञान मात्र हूँ, आनन्दमय हूँ, सबसे निराला हूँ। किसी दूसरे से मेरा संबंध नहीं है । यदि ऐसी स्वतंत्र दृष्टि हो जाये तो सुख और शान्ति का मार्ग मिल सकता है और कितना ही धन संचय हो जाये, कितनी ही इज्जत मिल जाये, पर अन्य की दृष्टि में शान्ति नहीं मिल सकती। किन्हीं भी पर पदार्थों का ख्याल करना, अटपटी कल्पनायें करना और परेशान होना, इतना ही काम प्राणियों का अब तक चला आ रहा है। हम दूसरों का ख्याल करते, इष्ट-अनिष्ट का ख्याल करते और परेशान होते हैं। पर के विषय में विकल्पचक्र में पड़ने से बरबादी होती रहती है। दूसरे को अपना मालिक समझ लेना, खुद को पर का मालिक समझ लेना, बस यही परेशानी की जड़ है। हम व्यर्थ ही कल्पना कर-करके दुःखी होते रहते हैं। वह लड़का सोच LU 348 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy