SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का मार्ग है और ओर बारह में दृष्टि फैलाने का नाम संसार है, संसार का मार्ग है। देखिये, भावना से ही यह संसार मिल जाता है और भावना से ही मोक्ष का मार्ग मिल जाता है। अब बुद्धिमानी यह होनी चाहिये कि हम किसे प्राप्त कर लें? केवल भावना से ही मिल रहा है सब कुछ। बाह्य पदार्थों की आसक्ति तो संसार का कारण है और संसार ही बंधन है। अतः बाह्य पदार्थों की आसक्ति छोड़कर अपने आत्मस्वरूप में रमण करने का पुरुषार्थ करो, जिससे यह संसार का बंधन छूट जाये और मुक्ति की प्राप्ति हो। देखो, सर्वजीवों को छुटकारा प्यारा होता है। स्कूल में लड़के पढ़ते रहते हैं तो उनकी इच्छा होती है कि कब छुट्टी मिल जाये तो उसके बाद अपना बस्ता उठाकर कैसा दौड़ते हैं? हो हल्ला करते हुए खुशी से भागते हैं। यह खुशी उनको किस बात की है? छुटकारा मिलने की है। छुटकारे का आनन्द सबसे उत्कृष्ट आनंद होता है। वह तो 6-7 घंटों का बंधन है, पर यह कितना विकट बंधन है कि शरीर में जीव फँसा हुआ है। शरीर से निकल नहीं सकता। जो ज्ञानमय पदार्थ है, जिसका कार्य सारे विश्व को जान लेना है, ऐसा यह आत्मा इन्द्रियों के द्वारा जान पाता है और सबको नहीं जान पाता है। राग-द्वेष विभाव इसके स्वभाव में नहीं हैं, फिर भी उत्पन्न होते हैं। सुख और दुःख इस संसार-विषवृक्ष के फलस्वरूप हैं। ऐसे विकट बंधन में पड़ा हुआ यह आत्मा यदि कभी इस बंधन से छूट जाये तो उसके आनन्द का क्या ठिकाना? यदि इस बंधन से छूटना चाहते हो, तो इन परपदार्थों का मोह छोड़ो। प्रभु ने क्या किया, जिनकी हम पूजा करते हैं? उन्होंने पहले मोह का त्याग किया। घर में रहकर भी मोह त्यागा जा सकता है। न मानें कुछ अपना । बस, घर में रह रहे हैं। पर यह जानें कि मेरा तो मैं ही आत्मा हूँ, दूसरा मेरा कुछ नहीं है। सच्चा ज्ञान होने पर जो आनन्द होगा, शान्ति मिलेगी, वह अन्य प्रकार से नहीं मिल सकती है। पुराणों में पढ़ा होगा कि बड़े-बड़े राजा दुःखी रहे । उनका दुःख दूर तब हुआ, जब उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। पांडव और कौरवों में कितना बड़ा युद्ध हुआ, पर पांडवों को शान्ति तब मिली, जब उन्होंने सर्व परिग्रह का परित्याग करके निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण की, अपनी आत्मा में रमण किया, तब W 343 a
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy