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________________ स्वरूप है, वही कल्याण है । यदि हमने इस एक आत्मा को नहीं पहचाना, तो संसार में भटकते-भटकते कुछ पता भी नहीं लगेगा। कितनी योनियाँ हैं, कितने शरीर के कुल हैं, कितने जगत में लोक के स्थान है, किस स्थान में, कितनी बार, कहाँ जन्म लूँगा? कितने-कितने शरीरों में कितने बार जन्म लेते रहेंगे। कुछ पता तक भी न रहेगा। अभी मनुष्य हैं, ज्ञान साफ है, स्वाधीन है, हम दूसरों की बात समझ लेते हैं, दूसरों को अपनी बात समझा देते हैं । पशु-पक्षियों को देखो, ऐसा जन्म हो गया तो क्या पल्ले पड़ेगा? इनके तो अक्षरमय भाषा ही नहीं है। अपनी बात वह दूसरों से क्या कहेंगे? उनमें धर्म की चर्चा क्या होगी । कीड़े-मकोड़े बहुत से जीव हैं, पर वे क्या कर सकते हैं? उन जीवों के मुकाबले से देखें तो हमारी इस समय कितनी उच्च अवस्था है? हम और आप सम्यग्दर्शन के पात्र हैं, सम्यग्ज्ञान के पात्र हैं और सम्यक्चारित्र के पात्र हैं। अपने में पुरुषार्थ करने की योग्यता है । हमें घर-द्वार, धन-वैभव इत्यादि में ज्यादा दृष्टि नहीं रखनी चाहिये। जो इस अपने सम्यग्ज्ञान को छोड़कर यदि परपदार्थों को महत्व देगा, तो अशान्ति रहेगी और कर्मों का बंधन ही होगा और यदि अपने इस शुद्ध स्वरूप को महत्व देगा, वहीं रमेगा, वही पहचानेगा, तो उसके बंधन कटेंगे, शान्ति का मार्ग मिलेगा और भविष्य में जब तक इसका संसार है उत्तम - उत्तम भव समागम मिलेंगे और निकट समय में मुक्ति प्राप्त होगी । इसलिये सम्यग्ज्ञान प्राप्त करो, प्रमादी मत बनो। इस अपने स्वरूप को देखकर प्रसन्न रहो। यह मेरा शाश्वत आनन्दमय चैतन्य स्वरूप सदा सबसे अलग है। एक अपने आप में सही स्वरूप का पता लग जाये, तो इससे बढ़कर जगत में और कुछ नहीं है । अतः आत्मा के ध्यान में, चिंतन में, मनन में, अध्ययन में, अनुभवन में अधिक -से-अधिक पुरुषार्थी बनकर अपने जीवन को सफल बनाओ। जिन महात्माओं ने, जिन सौभाग्यशाली पुरुषों ने इस निराले चैतन्य–चमत्कार—मात्र स्वरूप को पहचाना है, वे आनन्दमय हैं और जिन्होंने अपने स्वरूप को नहीं पहचाना है, वे प्राणी संसार में रुलते हैं, रोते हैं। आचार्य उन्हें समझा रहे हैं-ऐ रोने वाले प्राणियो ! तुम व्यर्थ में दुःखी हो रहे हो, व्यर्थ में विवश हो रहे हो। तेरी सहायता करने वाला संसार में कोई है क्या? तुझे मुक्ति 3402
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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