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________________ गया-गुजरा, कुछ मिला नहीं। सब गया, सब बिछुड़ा, न मोह करता मैं, तो अच्छा ही होता। तो जैसा गई - गुजरी बातों में सोच करते हैं, वैसा ही वर्तमान में मिले संयोगों में भी सोच लें और उनमें राग करना छोड़कर वैराग्य को धारण कर लें तो संसार से पार हो जायेंगे। क्या ये मकान, धन, वैभव, यश, प्रतिष्ठा आदिक सदा रहेंगे ? अरे! ये कुछ नहीं रहेंगे। जब कुछ रहना ही नहीं है, तो हम अभी से उनसे मोह न करें, राग न करें। लोग विवश होकर तो पर को छोड़ते हैं लेकिन विवेक करके नहीं छोड़ते। छोड़ना तो सब को पड़ता है, तो फिर विवश होकर क्यों छोड़ें ? सच्चे ज्ञानपूर्वक उन्हें छोड़कर वैराग्य को धारण करें, तो जीवन सफल समझो और यदि यह न कर सके तो जीवन बेकार समझिये । सम्यग्दृष्टि परपदार्थों को अपना नहीं मानता, इसलिये उसके राग में और एक मिथ्यादृष्टि के राग में बहुत अंतर होता है। जैसे बिल्ली जिस मुँह में चूहे को पकड़ती है, उसी मुँह में अपने बच्चे को भी पकड़ती है, परन्तु चूहे को तो मारने के लिये पकडती है और बच्चे को पालने के लिये पकड़ती है। इस प्रकार पकड़-पकड़ में फेर है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के राग में भी फेर है। जैसे कोई सफर में जा रहा है, उसका अपना सामान भी उसके पास है और दूसरा मुसाफिर भी वहीं बैठा है डिब्बे में, उसका भी सामान वहीं रखा है। पर इसे अपने सूटकेस में आत्मीयता है । इस आत्मीयता के कारण वह ऐसा राग करता है कि आगामी काल में भी तत्संबंधी राग रहेगा और कदाचित् वह मुसाफिर थोड़ी बात करके आपकी निगरानी में अपना सामान छोड़ जाय और वह प्लेटफार्म पर पानी पीने चला जाये, तब उसका सामान देखने का राग है या नहीं है? कोई उसे हाथ लगाये तो वह कहेगा कि भाई ! इसे मत छुओ, यह दूसरे का सामान है। राग थोड़ा जरूर है, पर वह राग भावीकाल में, आगामी समय में राग को पैदा करे, ऐसा राग नहीं है। थोड़ी देर के लिये है । जब वह मुसाफिर आ गया, तो उसमें रंच भी राग का संस्कार नहीं रहता। इसी तरह सम्यग्दृष्टि जीव को जो विषयभोगों के साधन मिले हैं, उनमें 333 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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