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________________ जानकर छोड़ देना चाहिये और पर द्रव्यों से भिन अपनी चेतन आत्मा की पहचान करनी चाहिये। जानने की शक्ति केवल जीव में ही होती है। यह शरीर, लकड़ी, मोटरगाड़ी, घड़ी, रुपये, मकान आदि पदार्थ दिखते हैं, वे सब अजीब हैं, उनमे जानने की शक्ति नहीं है वे चलते-फिरते, बोलते हुये भी अजीब हैं। ‘चले-फिरे, बोले,' सो जीव-ऐसी तो जीव की परिभाषा है नहीं। चेतना जिसमें हो, वह जीव ओर चेतना जिसमे न हो, वह अजीव । यह जीव व अजीब की सच्ची पहचान है। घड़ी चलती है तो क्या जीव है? नहीं, वह अजीव है। रेडिया बोलता है, तो क्या वह जीव है? नहीं, वह अजीव है। उसे कुछ मालूम नहीं है कि मैं घड़ी हूँ या मैं रेडियो हूँ। उसको जानने वाला तो जीव है। करीब 100 वर्ष पहले जब रेलगाड़ी चलना प्रारंभ हुई थी तब उसे दौडती देखकर कितने ही गाँव के लोग उसे जीव अथवा राक्षस मानते थे। कोई-कोई तो उसे नारियल चढाकर पूजते थे। कैसा भ्रम करते हैं कि शरीर का चलना-फिरना, बोलना ये सब कार्य जीव के हैं, जीव ही शरीर को चलाता है। परन्तु यदि जीव अजीव के भिन्न-भिन्न लक्षणों को अच्छी तरह पहचाने, तो यह सब भ्रम दूर हो जाय। जब आँख में जाली पड़ जाती है तो उसके द्वारा सामने पड़े हुए पदार्थ तथा उनके वर्ण आदि को देखना संभव नहीं होता हैं, लेकिन जब उपयुक्त चिकित्सा के द्वारा वह जाली दूर कर दी जाती है तो वही आँख पदार्थों तथा उनके वर्ण आदि को स्पष्ट देखने लगती है। इसी प्रकार जब आत्मा की स्वाभाविक शक्ति मिथ्यात्व रूपी जाली से ढक जाती है। तो वह जीव अपितु आदि पदार्थों की श्रद्धा नहीं कर पाता और इन शरीरादि परपदार्थों को अपना मानता है, किन्तु सम्यग्ज्ञान रूपी शलाका के द्वारा जब मिथ्यात्वरूपी जाली काट दी जाती है, तब सच्चा तत्त्व ज्ञान प्रगट हो । तत्त्व ज्ञान के अभाव में देहबुद्धि छूटना संभव नहीं है। और जब तक देह बुद्धि है, पर्यायबुद्धि है, तब तक व्यक्ति मानता है कि मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं बड़ा ज्ञानी हूँ, तपस्वी हूँ, साधू हूँ। यह पर्यायबुद्धि ही संसार-भ्रमण और समस्त आपत्तियों का कारण है। एक साधु जी और उनका शिष्य था। चलते-चलते शाम हो गई तो पास 0 3310
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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