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________________ अनुभव करना ही आत्मोन्नति का पहला पड़ाव है। यह भेदज्ञान ही रागद्वेषादि विकारों को मेटने की औषधि है। सम्यक् साधना में रत जीव जितना आत्मस्वभाव में लगता है शरीर, परिवार, परिग्रह, भोजनादि में उसकी आसक्ति उतनी ही कम होती जाती है, और आत्मा उतनी ही मात्रा में उज्जवल होती चली जाती है। अतः जो जीव अपना कल्याण करना चाहता है, उसे राग-द्वेष का अभाव करने की चेष्टा करनी चाहिये। जिन साधकों के पूर्णरूप से कषाय का अभाव नहीं हो पाता, वे शभोपयोग के फलस्वरूप स्वर्गादिक प्राप्त करते हैं और परम्परा से मोक्षपद प्राप्त करते हैं। राग-द्वेष का अभाव करने के लिए स्व को स्व व पर को पर जानकर, पर का आलम्बन छोड़कर, आत्मस्वभाव का आलम्बन लेना चाहिये। जो तत्त्व (आत्मतत्त्व) इस लोक में सर्व प्राणियों के शरीर में मौजूद है और आप देह से रहित है, जो तत्त्व केवलज्ञान और आनन्दरूप अनुपम देह को धारण करता है, तीन भवन में श्रेष्ठ है, उसको शांत जीव, संत पुरुष आधार बनाकर सिद्ध पद पाते हैं। जिसने अपने आप को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया (ब्रह्म को प्राप्त कर लिया) उसे फिर और-कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रहती। ___एक घटना है- वर्द्धमान महावीर जब 5 वर्ष के हुये तो उनके पिता सिद्धार्थ ने उनके विद्या अध्ययन के लिये एक आचार्य को नियुक्त किया। अध्ययन के पहले ही दिन बालक वर्द्धमान ने अपनी प्रज्ञा से आचार्य को निरुत्तर कर दिया। आचार्य ने वर्द्धमान! से कहा-वर्द्धमान बोलो एक। वर्द्धमान बोले- एक आचार्य ने समझाया एक माने आत्मा। फिर आचार्य ने कहा-बोलो दो। वर्द्धमान ने कहा-बस, अब और -कुछ बोलने की जरूरत नहीं। आचार्य ने आश्चर्य से पूछा-क्यों ? वर्द्धमान महावीर ने कहा- 'जे एगं जाणई, ते सव्वं जाणई ।' अर्थात् जो एक आत्मा को जान लेता है, वह सबको जान लेता है। महावीर की प्रज्ञा के समक्ष आचार्य मौन थे। आचार्य ने महाराज सिद्धार्थ से क्षमायाचना के साथ कहा- महाराज! यह बालक कोई साधारण शिशु नहीं है, बल्कि जगद आचार्य है। इसे कोई क्या सिखायेगा ? आज से मैं स्वयं इनके चरणों में बैठकर कुछ w 326 a
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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