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________________ के कारण ही संसार में भटक रहा है। अब सुकुल व सच्चे-देव-शास्त्र गुरु का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। अतः प्रमाद को छोड़कर अपने आत्मचिंतन में लगना ही मानवपर्याय की सफलता है। जिसे आत्मज्ञान हो गया, वही धन्य है। परवस्तु में अपनापन मानना ही दुःख का कारण है और आत्मस्वभाव में रहना ही सुख है। केले के पेड़ में भले सार निकल आवे, किन्तु विषयभोगों में कोई सार नहीं है। यह विषयसामग्री तो अनेक बार मिली, किन्तु वस्तु स्वरूप का ज्ञान (आत्मा का परिचय) आज तक प्राप्त नहीं हुआ। आचार्य समझा रहे हैं- अब भूल की बात को मत दोहराओ और सर्व प्रयत्न करके आत्मा को पहचानकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का प्रयास करो। एकमात्र सम्यग्दर्शन ही ऐसा है जो इस संसार से मुक्त करा सकता है। यदि संसारी जीव विषयभोगों की आधीनता छोड़कर अपने आत्म-सुख का अनुभव करें तो उन्हें वह परम आल्हाद सुख मिले, जिसमें न आकुलता है, न चिन्ता है, न लालसा है, न अशान्ति है, न पराधीनता । अत्यन्त महिमावन्त आत्मा अनन्तसुख का अक्षय भंडार है, अनन्त गुणों का स्वामी है। आत्मस्वरूप का विचार व ध्यान करते ही महान आनन्द उत्पन्न होता है। सम्यग्ज्ञानी जीव को समस्त बाह्य वैभव और परपदार्थों के प्रति दृढ़ वैराग्य होता है। 'छहढाला' ग्रंथ की चौथी ढाल में कहा है कि करोड़ों उपाय करके भी, हे भव्य! तू सम्यग्ज्ञान प्रगट कर। यह सम्यग्ज्ञान ही विषय-कषाय के दुखों से छुड़ाकर मोक्ष-सुख प्राप्त करता है। जितने जीव मोक्ष गये हैं, जो जा रहे हैं और आगे जायेंगे, यह सब सम्यग्ज्ञान की ही महिमा है। आत्मज्ञान के सिवाय सुख का दूसरा कोई उपाय नहीं है। रत्नत्रय से सहित यही जीव उत्तम तीर्थ है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नाव से संसार को पार करता है। जिसके द्वारा संसार को तिराजाये उसे तीर्थ कहते हैं। सो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय से सहित यह आत्मा ही सब तीर्थों में उत्कृष्ट तीर्थ है, क्योंकि यह आत्मा रत्नत्रयरूप नौका में बैठकर संसाररुपी समुद्र को पार कर जाता है। आशय यह है कि यह जीव रत्नत्रय को अपनाकर संसारसमुद्र को तिर जाता है, अतः रत्नत्रय 'तीर्थ' DU 318 i
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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