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________________ व्यतिरेक प्रधानता से मोक्ष का स्वरूप है। आत्मा का समस्त कर्मबन्धनों से छूट जाना ही मोक्ष है। वह मोक्ष दो प्रकार का है- द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष । आत्मा का जो परिणाम समस्त कर्म बन्धनों के क्षय में कारण है, वह भावमोक्ष है और आत्मा से समस्त कर्मों का अत्यन्त भिन्न हो जाना, द्रव्यमोक्ष है। वह द्रव्यमोक्ष अयोगकेवली के अंतिम समय में होता है। वह मोक्ष आत्मस्वरूप ही है। जैसे स्वर्ण से आंतरिक और बाह्य मैल निकल जाने पर स्वर्ण के स्वाभाविक गुण चमक उठते हैं, वैसे ही कर्मबन्धन से सर्वथा छूट जाने पर आत्मा स्वाभाविक स्वरूप में स्थिर हो जाता है, यही मोक्ष है। संसार अवस्था में इन्द्रियजन्य ज्ञान, इन्द्रियजन्य सुख होता था, जो कि एक तरह से पराधीन होने से दुःखरूप ही था। इन्द्रियों की परधीनता के मिट जाने से मुक्तावस्था में स्वाधीन, स्वाभाविक अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख प्रगट हो जाते हैं, जो कभी नष्ट नहीं होते। समस्त कर्मों से मुक्त होने पर जीव ऊर्ध्वगमन करता है तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् ।।5 ।। समस्त कर्मों का क्षय होने के बाद मुक्त जीव लोक के अन्तभाग पर्यन्त ऊपर को जाते हैं। सर्वार्थसिद्धि से 12 योजन ऊपर, 8 योजन मोटी, व 7 राजू पूर्व-पश्चिम और 7 राजू उत्तर-दक्षिण "ईषतप्राग्धार" नाम की आठवीं पृथ्वी है। जिसके अन्तिम ऊपरी भाग में बीचों-बीच मनुष्यलोकप्रमाण 45 लाख योजन समतल अर्द्धचन्द्राकार सिद्वशिला है। आठवीं पृथ्वी ईषतप्राग्धार के ऊपर 2 कोस, 1 कोस और 1575 धनुष के क्रम से तीन वातवलय हैं। अन्तिम वातवलय के 1 कोस से कुछ कम की मोटाई और 45 लाख योजन में अपनी-अपनी अन्तिम देह से कुछ न्यून आकार के सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। आचार्य उमास्वामी महाराज ने मुक्तजीव के ऊर्ध्वगमन का कारण बताते हुये लिखा है पूर्वप्रयोगादसड्.गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथा गतिपरिणामाच्च ।।6।। पूर्व प्रयोग से, संगरहित होने से, बन्ध का नाश होने से, ऊर्ध्वगमन 0 289 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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