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________________ किनहू न करै न धरै को, पर द्रव्य वृथा न हरै को। सो लोक मांहि बिन समता, दुःख सहै जीव नित भ्रमता।। द्रव्यों को किसी ने न तो बनाया और न बनाने वाला है। अज्ञानी जीव वस्तुस्वरूप को न जानकर व्यर्थ ही भ्रमण किया करता है। लोक के सर्वपदार्थ स्वतन्त्र हैं। न कोई अच्छा है और न कोई बुरा है। नीम का स्वभाव कटुक है। अब यदि कोई कहे कि नीम को क्यों बना दिया? अरे! तुम्हें नहीं रुचता तो ऊँट को तो अच्छा लगता है। कषाय अज्ञानियों के लिए होती है। ज्ञानी को तो सर्वत्र ज्ञान का ही आदरभाव है। कषाय अच्छी न लगे, तो न करो। अच्छी लगे, तो उसके फल को भुगतने के लिए तैयार रहो। कषाय का स्वभाव अशुचि और दुःखरूप ही है। वर्णीजी की जीवनगाथा में एक दृष्टान्त है एक बार वर्णीजी को पैदल शिखर जी जाना था। वे दो मील पैदल चले और थक गए, आगे नहीं चला गया। उनके साथ एक रसोईया था, वह बोला-'सागर दूर सिमरिया नियरी'-उन्होंने इसका मतलब पूछा तो वह कहने लगा सागर के एक व्यापारी को बुन्देलखण्ड के सिमरिया गाँव के एक व्यापारी से कुछ उधारी लेना थी, तो वह घोड़े पर सवार होकर सिमरिया चल दिया। थोड़ी दूर चलकर उसने एक राहगीर से पूछा, कि सिमरिया कितनी दूर है? उसने उत्तर दिया- "सागर दूर सिमरिया नियरी" अर्थात् तुमने सिमरिया की तरफ मुँह कर लिया है तो अब 500 मील दूर होकर भी निकट है और चार कदम पास होकर भी सागर की ओर से पीठ कर ली तो वह दूर हो गया। हमने उसका भाव समझ लिया। दूसरे दिन हम सात मील चले और तीसरे दिन कुछ और मील चले, इस तरह धीरे-धीरे शिखर जी पहुंच गए। यह कहावत बिलकुल ठीक है। मोक्षमार्ग के सन्मुख हो जायें, तप को अंगीकार कर लें, तो संसार दूर और मोक्ष निकट है। जो तप के माध्यम से कर्मों की निर्जरा करता है, वह एक दिन समस्त कर्मों से रहित होकर मोक्ष में पहुँच 0 2860
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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