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________________ हैं। जब भोग में मग्न होते हैं, तब तत्त्वज्ञान से दूर हो जाते हैं। भोग अभिलाषा की दशा ही मिथ्यात्व है। जो तीव्र भोग में मग्न रहते हैं, वे मिथ्यात्वी जीव हैं और जो भोग से उदास हो जाते हैं, वे सम्यग्दृष्टि हैं। इसलिए भोग से उदास होकर योग की ओर बढ़ना ही श्रेयस्कर है। निर्जरा के स्वरूप का वर्णन करते हुऐ आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने 'ज्ञानार्णव' ग्रंथ में लिखा है यथा कर्माणि शीर्यन्ते बीज-भूतानि जन्मनः । प्रणीता यमिभिः सेयं निर्जरा जीर्णबन्धनैः ।। निर्जरा से जीर्ण हो गये हैं कर्मबन्ध जिनके, ऐसे मुनिजन, जिससे संसार के बीजरूप कर्म गल जाते हैं, उसे निर्जरा कहते हैं। विशुद्धयति हुताशेन सदोषमपि कांचनम्।। यद्वन्तथैव जीवोऽयं तप्यमानस्तपोऽगिना।। जैसे सदोष भी स्वर्ण अग्नि में तपाने से विशुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार यह कर्मरूपी दोषों सहित जीव तपरूपी अग्नि में तपने से विशुद्ध और निर्दोष (कर्मरहित) हो जाता है। निर्वेदपदवी प्राप्य तपस्यति यथा यथा। यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयानि तथा तथा।। संयमी मुनि वैराग्य पदवी को प्राप्त होकर जैसे-जैसे (ज्यों-ज्यों) तप करते हैं, तैसे-तैसे (त्यों-त्यों) दुर्जय कर्मों को क्षय करते हैं। इन्द्रियभोग आस्रव-बंध के कारण हैं और योग निर्जरा का कारण है। आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने 'समयसार' ग्रंथ की चौथी गाथा में लिखा है सुदपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। __ एयत्तस्सुवलंभी णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।। यह जीव काम, भोग, बन्ध सम्बन्धी चर्चा अनादिकाल से सुनता चला आ रहा है, अनादि से उसका परिचय प्राप्त कर रहा है अथवा अनादि से उसका अनुभव करता चला आ रहा है। इसलिए उस पर सहसा प्रतीति हो जाती है। 0 270 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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