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________________ कर्मरहित अमूर्त केवल सहज चैतन्यस्वरूप अन्तस्तत्त्व का परिचय है, ऐसा पुरुष ही कर्मों की निर्जरा कर सकता है, क्योंकि निर्जरा के मायने है- कर्मों को आत्मा से अलग हटाना। जब-तक इस जीव का परिणाम परद्रव्यों के साथ लगाव का है, तब-तक इसमें न कर्मों का संवर है और न कर्मों की निर्जरा संभव है। यद्यपि कर्म उदय में आये और झड़ गये, इसका नाम भी निर्जरा है, किन्तु निर्जरा तत्त्व का यह प्रयोजन नहीं है। ऐसी निर्जरा तो सभी संसारी जीवों की हो ही रही है। कर्म उदय में आते हैं और फल देकर झड़ जाते हैं, लेकिन इस निर्जरा से तो इस जीव का पूरा क्या पड़ा? यह हानि में ही रहा। उससे और कर्मों का इसने बंध कर लिया। तो जो मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत है, उस निर्जरा से यहाँ सम्बन्ध | है। ज्ञानीपुरुष जिसने कर्मरहित शुद्ध चैतन्य मात्र अपने आपके स्वरूप का निर्णय किया है- 'मैं तो यह हूँ', इस तरह निर्णय करने वाले ज्ञानीपुरुष के कर्मों की निर्जरा होती है। यह सब कर्मों की निर्जरा वैराग्यभाव से होती है। चूंकि ज्ञानीजीव में रागभाव नहीं रहा, तब कर्म कैसे टिक सकें? जैसे कोई मेहमान आपके घर आया और आप उसको आदर न दें, उसकी प्रीति न रखें, तो वह मेहमान घर कब-तक टिका रहेगा? उसे तो जल्दी भागना होगा। वैसे भी भावना और जब रुचि न दिखी मालिक की, उस गृहस्थ की, तो मेहमान कब तक टिक सकता है? तो चूँकि वह मेहमान पहले किये हुए राग के कारण आया था, लेकिन वर्तमान में राग नहीं, तो वह कब-तक टिक सकेगा? ऐसे ही ये कर्म कैसे टिक सकेंगे? उनकी निर्जरा होगी, इनकी उथल-पुथल मचेगी। निर्जरा का साधन है वैराग्य व तप। यदि आत्मकल्याण करना चाहते हो तो पाँच इन्द्रियों के भोगों को छोड़कर अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करो। आचार्य योगीन्दुदेव कहते हैं ए पंचिंदिय-करहडा जिय मोक्कला म चारि। चरिवि असेसु वि विसय-वणु पुणु पाडहिँ संसारि।।136 ।। ये प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रिय रूपी ऊँट हैं, इनको अपनी इच्छा से मत चरने दो, विचरण मत करने दो, क्योंकि इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषय विषय-वन को चर कर su 268 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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