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________________ समता को धारण किया और परीषह व उपसर्ग विजयी बने तथा कल्याण को प्राप्त हुए। दण्डक नाम की एक नगरी थी, जिसका राजा दंडक था। यहाँ की रानी और राजा स्वयं वीतराग धर्म के बहुत विरोधी थे। प्रतिदिन वीतराग साधु की निन्दा किया करते थे। एक बार यह दंडक राजा जंगल में घूमने के लिए चल दिया। वहीं जंगल में एक वीतरागी साधु ध्यान में मग्न बैठे थे। अतः इन्हें देखते ही राजा की दुर्भावना प्रबल हो उठी। राजा साधु के गले में सांप डालता है और तमाशा देखने को बैठ जाता है। एक दूसरा व्यक्ति जो वीतराग साधु का भक्त था, आता है और सांप को गले से अलग कर देता है। कुछ समय बाद मुनि महराज का ध्यान टूटता है, तो सामने बैठे दोनों को आशीर्वाद देते हैं। दंडक राजा विचार करता है कि ये साधु तो महान होते हैं, इन्होंने पूजक और निन्दक दोनों को समान आशीर्वाद दिया और वह प्रभावित हो निर्णय लेता है कि आज से मैं दिगम्बर वीतरागी सन्तों की पूजा करूँगा, विरोध नहीं करूँगा। इस प्रकार श्रद्धान लेकर वह अपने महल में आकर रानी से कहता है कि आज से तुम भी वीतरागी साधुओं की पूजा किया करो। रानी तो सरागी साधुओं को मानती थी, अतः राजा को वीतरागी साधुओं का भक्त बना देखकर विचारने लगी कि क्या उपाय किया जाये जिससे राजा का इनके प्रति श्रद्धान नष्ट हो जाये। अतः वह एक सरागी साधु को बुलाकर लाने का निर्णय लेती है। दोनों योजना बना लेते हैं कि राजा के सामने सरागी साधु दिगम्बर मुनि का वेश धारण कर रानी से विकारयुक्त बातचीत करेगा। ऐसा ही वे जब राजा के सामने करते हैं तो राजा दंडक बहुत दुःखित होता हुआ उसे महल से बाहर निकलवा देता है और पुनः वीतरागी साधुओं का विरोधी हो जाता है। वह अपनी रानी की मायाचारी से पूर्णतः अनभिज्ञ रहता है। एक दिन इसी दंडक नगरी में 500 मुनियों का संघ विहार करता हुआ आता है। राजा विचार करने लगता है कि एक जैन साधु मेरी रानी को भ्रष्ट करने पर तुला था, ये 500 साधु तो सारा नगर बिगाड़ देंगे। अतः बिना सोचे-समझे आदेश देता है कि सब साधुओं को घानी में पेल दिया जावे। आदेश w 240 a
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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