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________________ जाती है, बाहरी पदार्थों का समागम शुरू हो जाता है, उनमें इसका लगाव होने लगता है। यह मानने लगता है – “मैं सुखी-दुःखी मैं रंक राव, मेरे धन ग्रह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, वेरूप सुभग मूरख प्रवीण ।।” देखो, देखने में गलती जरासी ही लगती है, बल्कि यों लगता है कि मैं कोई गलती ही नहीं कर रहा हूँ। किसी से झूठ नहीं बोल रहा, किसी की हिंसा नहीं कर रहा, किसी की चीज नहीं चुरा रहा, कोई कुशील बगैरह नहीं कर रहा, मगर उस जरा-सी गलती का दण्ड क्या मिल रहा है कि कीट, पतंगा, पशु, पक्षी, पेड़पौधे, नारकी आदि नाना कुयोनियों में जन्म-मरण के चक्कर लगाना पड़ रहे हैं। तो मोह से बढ़कर और क्या अपराध कहा जाये ? उतना बड़ा कोई अपराध नहीं जितना बड़ा मोह है। अतः परपदार्थ जो प्रयोजन में आ रहे हैं, उनके प्रति राग तो होता है, मगर उससे मोह तो मत करो। मोह से तो सदा बरबादी ही है। पुत्र है, सो मैं हूँ। अगर यह न रहा तो मेरे प्राण नहीं टिक सकते, मैं बरबाद हो जाऊँगा। यह स्थिति होती है मोह में। मोह न हो तो भी राग रह सकता है। यहाँ एक दृष्टान्त ले लो- जैसे कोई सेठ बीमार हो गया तो उसे दवा कराने के लिये अच्छा कमरा चाहिये, अच्छा पलंग चाहिये, डाक्टर चाहिये, दवा चाहिये, सेवा करने वाले नौकर चाहिये । यदि इन बातों में कुछ कमी हुई तो सेठ झुंझलाता है, कदाचित् डाक्टर के आने में, दवा मिलने में कुछ देर हो जाये तो वह सेठ झुंझलाता है। कुछ ऐसा लगता है कि उस सेठ को डाक्टर, दवा, पलंग आदि से बड़ा मोह है, पर जरा बतलाओ उस सेठ को उनसे मोह है क्या? यदि मोह होता तो वह सदा यही श्रद्धा रखता कि ऐसी दवा, ऐसा डाक्टर, ऐसा नौकर, ऐसा पलंग, ऐसी सेवा, ऐसी पूछताछ मुझे जिन्दगी भर मिलती रहे। अरे! वह उन सबके प्रति बड़ा अनुराग दिखाता है, पर उसकी आन्तरिक भावना यही रहती है कि मैं कब ठीक हो जाऊँ, दो मील घूम लिया करूँ ? तो देखिये, उस सेठ को मोह तो नहीं है। पर दवा, डाक्टर आदि से राग जरूर है। तो राग और मोह में अन्तर है। घर में रहकर राग तो रहेगा, पर मोह को दूर करके भी रहा जा सकता है। इस मोह के कारण अपने स्वरूप की सुध नहीं रहती। मोह करते हैं, पर को ___0_210
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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