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________________ है। आस्रव दो प्रकार का होता है, 1. सांप्रायिक 2. ईर्यापथ । कषाय सहित जीव के आस्रव को सांप्रायिक आस्रव कहते हैं और कषायरहित जीव के आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। जिस प्रकार गीले चमड़े पर धूल (उड़कर) जमकर बैठती है, उसी प्रकार कषायसहित जीव के कर्म जमकर बैठते हैं अर्थात् उनका स्थिति और अनुभाग बंध अधिक होता है और सूखी दीवाल पर फेंका हुआ ढेला जिस प्रकार दीवाल का स्पर्श कर तत्काल उससे अलग हो जाता है, उसी प्रकार कषायरहित जीव के कर्म आत्मा के साथ संबंध करते ही एक समय के भीतर अलग हो जाते हैं, उनमें स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं पड़ता। हमारे शुभ भावों से शुभ कर्मों का आस्रव तथा अशुभ भावों से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है। अतः सदा अशुभ भावों से बचना चाहिये। एक राजा ने अपने बेटे को राज्य सौंपकर दीक्षा धारण कर ली। वह उग्र तपस्या करता रहा। एक दिन लड़के के राज्य पर किसी राजा ने चढ़ाई कर दी। उसी नगर के दो राजकुमार राजा से बने मुनि के दर्शन के लिए जा रहे थे। उन्होंने मुनि को देखकर कहा कि आप मुनि बन गये और आपके बेटे के राज्य पर किसी राजा ने आक्रमण कर दिया है। यह सुनकर मुनि को कोध आ गया कि यदि मैं घर पर होता तो देखता वह कैसे चढ़ाई करता ? मेरे सामने कौन लड़ सकता था? अब क्या करूँ? ऐसे भाव मुनि के बन जाने से भृकुटी तन गई, क्रोध से हाथ-पाँव काँपने लगे। इतने में राजग्रही के राजा श्रेणिक आ जाते हैं और देखते हैं कि मनिराज तो तपस्वी हैं, लेकिन क्रोध क्यों आ रहा है? इस बात का विकल्प बन जाता है, तभी समवसरण में जाकर गौतम गणधर से मुनि के बारे में पूछते हैं। भगवान् की वाणी खिरती है कि यदि ये मुनि इसी भाव में मरण कर गये तो नरक जाएंगे। उन्हें जाकर संबोधो और खोटे भाव से हटाकर वीतराग भावों में लाओ। तभी राजा श्रेणिक जाकर मुनि महाराज को संबोधित करते हैं कि हे स्वामी! यह संसार असार है। इसमें कोई कभी न किसी का हुआ, न होगा। आपका वेश भी महान है। आप व्यर्थ ही लड़के के मोह में फँस रहे हैं। लड़का तो लड़का है। यह शरीर भी कभी किसी का न हुआ, ऐसा सुनकर 0 1770
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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