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________________ आत्मा का पर्याय बन सके कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाना है? शरीर और आत्मा के भेद को समझनेवाला अन्तरात्मा ही एक दिन अपनी आत्मा को पवित्र करके परमात्मा बन जाता है। अपनी आत्मा का शरीर से ठीक उसी प्रकार का संबंध है जैसे उड़द से छिलके का। एक मुनिराज थे, वे णमोकार मंत्र का शुद्ध उच्चारण भी नहीं जानते थे। गुरु महाराज उन्हें पढ़ाते-पढ़ाते थक गए, परन्तु मुनिराज फिर भी बुद्धि से मंद होने के कारण कुछ सीख नहीं पाए। एक दिन जब वे आहार करने को निकले, तब उन्होंने एक महिला को उड़द के छिलकों को फटकते देखा। वे वहीं खड़े हो गए और पूछ बैठे कि इन छिलकों को फेक क्यों रही हो? जब उन्हें पता लगा कि अब छिलके कोई काम के नहीं रहे, तभी उन्हें अनुभव हुआ, ज्ञान की लब्धि प्राप्त हो गई कि यह शरीर भी तो अपनी आत्मा से उड़द के छिलके के समान भिन्न है। इसे भी एक दिन नष्ट किया जाएगा। बस, उसी दिन से उन्हें जब यह अनुभूति हुई, तब वे आत्मा के प्रकाश को पाने में ऐसे जुटे कि एक दिन केवलज्ञान तक को प्राप्त करने में सफल हो गये। जब यह जीव अन्तरात्मा बन जाता है, जब सच्ची श्रद्धा होती है, तब पाषाण में भी भगवान् दिखने लगते हैं। धर्म की नींव श्रद्धा, समर्पण व आस्था पर खड़ी है? जहाँ सच्ची श्रद्धा और समर्पण होता है, तब मिट्टी और पाषाण की प्रतिमा में भी भगवान् आ जाते हैं। यही तो श्रद्धा और समर्पण का चमत्कार है। एक बार अपने हृदय के मंदिर में प्रभु को विराजमान करने का पुरुषार्थ तो करो। अपनी शक्ति को छुपाओ नहीं, बल्कि उसको प्रकट करो। ध्यान रखना- जब दान, साधना, पूजन, नियम, देव-दर्शन, सत्-संगति, स्वाध्याय आदि करने की शक्ति अपने में मौजूद है, तब उसको छुपाओ मत, बल्कि उसे प्रकट करो, फिर श्रद्धा व समर्पण जीवन को बदल देगा। फिर पाषाण में भी साक्षात् भगवान् के दर्शन मिल जाएँगे। एकलव्य में गुरु के प्रति इतना समर्पण था कि अपने गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी से बनाई मूर्ति से ही उसने वह शब्दभेदी बाण चलाने की दुर्लभ कला सीख ली जो कि साक्षात् गुरु की मौजूदगी में अर्जुन नहीं सीख पाया। एकलव्य 0 1470
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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