SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुभव करता है तो इसके राग बढ़ता है। जब यह स्वयं को द्रव्यस्वभाव-रूप अनुभव करने लगता है तो इसके रागादि में कमी होने लगती है और आत्मा क्रमशः रागादि से रहित होकर शुद्ध हो जाता है। साथ ही शरीरादि की उत्पत्ति के कारणभूत कर्मों का भी अभाव हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति नाटक में अभिनय कर रहा है तो वहाँ पर जो अभिनय है वह 'पर्याय' है और जो अभिनय करने वाला व्यक्ति है वह स्वभाव' है। स्वांग करते हुए भी वह कौन है?' इसका उसे ज्ञान है। ‘पर्याय' में लाभ-हानि, यश-अपयश, जीवन-मरण होते हुए भी उसे कोई सुख-दुःख नहीं होता, क्योंकि उसने अपने को ‘स्वभाव' में स्थापित कर रखा है। इसी प्रकार, आत्मा का चेतनपना तो ‘स्वभाव' है और क्रोधादि अवस्थाएं 'पर्याय' हैं। यदि कोई व्यक्ति अभिनय करते हुए अपने असली रूप को भूल जाता है, स्वांग को ही वास्तविकता मान लेता है और फलस्वरूप दुःखी -सुखी होने लगता है, तो फिर उसका वह दुःख कैसे दूर हो? उपाय बिल्कुल सीधा है। यदि उसे अपने निजस्वरूप का, जिसे वह अभिनय के दौरान बिल्कुल भूल गया है, फिर से अहसास करा दिया जाये तो अभिनय, अभिनय ही रह जायेगा, इसका दुःखी-सुखी होना मिट जायेगा। उसके दःख को दर करने का यही सही उपाय है। स्वांग को बदलना सही उपाय नहीं है। क्योंकि स्वांग तो उसे नाना प्रकार के मिलते ही रहेंगे। यदि अपना अहसास बना रहे तो चाहे जैसा भी स्वांग हो, उसको करते हुए भी अभिनेता दुःखी नहीं होगा। इसी प्रकार इस जीव ने अपने चैतन्य स्वरूप को न पहचान कर, कर्मजनित अभिनय को ही वास्तविक मान लिया है, इसलिये दुःखी हो रहा है। दुःख से बचने का मात्र एक ही उपाय है कि यह अपने असली स्वरूप को पहचान ले। तब स्वांग में असलियत का भ्रम मिटकर वह मात्र नाटक रह जायेगा। फिर इसे चाहे जैसा भी स्वांग करना पड़े यह उसमें दुःखी नहीं होगा। ___ जीव की इसी विडम्बना को देखकर आचार्यों ने कहा है कि तू यदि कर्मकृत स्वांग में असलियत मानेगा तो तेरे राग-द्वेष अवश्य होगा, जिससे पुनः कर्मबंध होगा। दूसरी ओर, यदि तू स्वयं को पहचानकर कर्मजनित स्वांग को 0 135_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy