SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९४ लघुविद्यानुवाद व्याख्या -जनयति उत्पादयति कासी की इय देवी पद्मावती कीशी ? प्रहसितवदना प्रहृष्टानना कस्मात् पार्श्वनाथप्रसादात् या स्तुता. के ? दानवेद्रे : दैत्यपुरुहूतः कि जनयति लक्ष्मी सौभाग्यरूप कीदृश तत् दलितकलिमल निर्दलित पापमल । तथा मगल जनयति । केपाम् मगलाना, नि श्रेयसानामपि मध्ये विशिष्ट नि श्रेयस जनयति इत्यर्थः । पुनरपि कथभूत पूज्य, अर्य पुनरपि कीदृश, कल्याणमान्य, कुशलयुत । कथ? सतत निरतर केषु ? पटुतरपठता स्पष्टतर भूर्णेता पठेता कथ ? भक्ति पूर्व बहुमानपूर्व न केवल भक्तिपूर्व विसध्य च, किं कर्म भो मत स्तोत्र स्तवन कीदृश? दिव्य प्रधान पुनरपि कीदृशम् पवित्रम् ।।६।। ___ अस्या पार्श्वदेवमणिविरचिताया पद्मावत्यष्टकवृतौ यत् किमपि वद्य पठित तत्सर्व सर्वाभिक्षतव्य । देवताभिरपि । __वर्षाणा द्वादश कि शतै गते. त्र्युत्तरैरिय वृत्ति १२०३ वैशाखे सूर्ये दिने समयिता शुक्ल पचम्या ॥१॥ अस्याक्षरस्य गणनाम् पचशतानि द्वाविद्रादक्षराणि च सदनुष्टुप छदसा प्राप ।।२।। इति श्री पार्श्वदेवमणि विरचिता पद्मावत्यष्टक वृति. सपूर्ण ॥ सवत् १९२२ रा मिति ज्येष्ठ वद १३ कुजवासरे योधपूरे नगरे लिपि कृत प० रामचद्रण स्वात्मार्थे ।।इति।। (पद्मावत्यष्टक वृती अर्थ समाप्तः ) श्लोक नं. ६ इस दिव्य पवित्र स्त्रोत को बुद्धिमान, तीनो सध्यारो मे भक्ति पूर्वक पढता है उसको लक्ष्मी की प्राप्ति, सौभाग्य की प्राप्ति होती है । मगलो मे मगल होता है। कलीमलो का नाश होता है । जो देवी प्रहसत वदन है । क्योकि जिनका मन पार्श्व जिनेद्र की भक्ति मे ही है। इसलिये दानव इन्द्रो के द्वारा वदित है। इसलिए सबको कल्याणकारी है। इस स्त्रोत को जो आ० पार्श्वदेव मणि विरचित पद्मावती वत्ति को जो कोई भी वदन करता है, पढता है वह सर्व प्रकार के सर्व अभिसिप्त प्राप्त करता है। इति श्री आ० पार्श्वदेवमणि विरचित पद्मावष्टक वृत्ति सपूर्ण । आगे विरनद्याचार्यकृत पद्मास्तोत्र के यन्त्र मन्त्र विधि चालू जो ३७ श्लोक मे है । षट्कोणे चकमध्ये प्रणतवरयुते वाग्भवे कामराजे हंसारुढे सविन्दौ विकसित कमले करिणकाने निधाय । नित्ये ! क्लिन्ने ! मदद्रव इति सहितं साडू शंपाश हस्ते ! ध्यानात संक्षोभकारि त्रिभुवनवशकृद् रक्ष मां देवि ! पद्मे ॥१०॥
SR No.009991
Book TitleLaghu Vidhyanuvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj, Vijaymati Aryika
PublisherShantikumar Gangwal
Publication Year
Total Pages774
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy