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________________ पृथ्वी पर, गमनागमन और यात्रादि मे सरलता, शीघ्रता आराम देते है, वैसे ही यत्र-स्वर्ण, रजत, धातु कागज पर बने हुए अनेक रोगो की शान्ति, अनेक बधनो से छुटकारा और अनेक कार्यों को सम्पन्न कराते है। तत्र -तनु को, (शरीर को) तरावट देते, शरीर, इन्द्रियो को स्वस्थ. मजबूत, शक्तिशाली, शीत, उण, रोग व्याधि को हरते, उपसर्ग से बचाते, तथा शरीर को रसायनो, जडी-बूटियो से दृढ, शक्तिशाली, मजबूत बनाते, योगासनो द्वारा-शरीर मे लचक, चमत्कार, सूक्ष्मता, दृढता, विशालता, विस्तृता आदि को देने वाले, औपधि स्वरूप भी होते है । मत्र से मन मे मस्ती शाति, तत्र से शरीर मे दृढता, तरावट, तन की शुद्धता, और यत्र से मानव-जीवन को सरल-सुगम विहार पर्यटन (आकाश, जल, पृथ्वी, नौकागमन) मे शक्ति मिलती है यथार्थ मे मत्र-तत्र यत्र मानव के पचभत शरीर मे स्थित प्रात्मा की ऊर्जा का उर्वीकरण और नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा, पुरुष से पुरुषोत्तम के विकास की प्रक्रिया के द्योतक है। वारणी की बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती पराशक्तियो को अभिव्यजना, लक्षण, द्वारा प्रगट करना एव शब्द ब्रह्म की त्रैलोक्य व्यापिनी शक्ति को प्रदर्शित करना मत्र विद्या और मत्र शक्ति का ही कार्य है। (१) क, च ट, त, प-इन अथरो मे विद्यमान पृथ्वी तत्व से सभी मौलिक सामग्री पायी जा सकती है। (२) ख, छ ठ, थ, फ-इन जल तत्व के अक्षरो से शाति सन्तोष, मानसिक तृप्ति हो जाती है। (३) ग, ज, ठ, द, ब-इन अग्नि तत्व अक्षरो की साधना साहस, धैर्य, शक्ति ऊर्जा प्रदान करती है। (४) घ, झ, ढ, ध, झ-इन वायु तत्व के अक्षरो से दूर-सचार, गमन आगमन शक्ति प्राप्त कर सकते है। (५) ड, ण, न, म-इन आकाश तत्व से निर्मित वणों से अनन्तता, विशालता, पवित्रता, मोक्ष मिलता है। और साधक इच्छानुसार पृथ्वी, स्वर्ण धातु, जल से सुख शाति, अग्नि से सामर्थ्य, वायु से गमनागमन पर्यटन, विहार एव आकाश तत्व साधनो से दिव्य, अलौकिक शक्ति सम्पन्न प्रात्मामो से सम्पर्क कर सकता है। बीजाक्षरो की शक्ति-स्वरूप, आसन, मुद्रा के विधि विधान, तथा रोग निवत्ति कारक अनेक अनुभवी औषधि नुस्खो सहित परमेष्ठी वाचक मत्रो, पद्मावती-चक्रेश्वरी देवियो के चित्रो एव चमत्कारिक जडी बूटियो के प्रयोगो, तथा धन्वन्तरि कल्प, गजा कल्प, हाथाजोडी दक्षिणावती शख, एकाक्षी नारियल, सुवर्ण-रजत के रसायनिक प्रयोगो से परिपूर्ण इस न थराज के पाचों
SR No.009991
Book TitleLaghu Vidhyanuvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj, Vijaymati Aryika
PublisherShantikumar Gangwal
Publication Year
Total Pages774
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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