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________________ [१०] इस पर भगवान ने कहा ये लोग पुरानी बातों को भूल जाने के कारण ही ऐसा कहते हैं। क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं । इन सभी में कृष्ण और शुक्ल धर्मों को करने वालेदोनों प्रकार के लोग पाये जाते हैं। तो ब्राह्मण यह कैसे कह सकते हैं कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण हैं ? विद्वान लोग ऐसा नहीं मानते, क्योंकि इन्हीं चार वर्गों में जो भिक्षु अरहंत, क्षीणाश्रव, ब्रह्मचारी, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ-प्राप्त, शिथिल भव-बंधन वाला और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के कारण विमुक्त हो जाता है, वह सभी से आगे बढ़ जाता है। भगवान ने आगे समझाया कि धर्म ही मनुष्य में श्रेष्ठ है। जिस किसी की तथागत में अटूट श्रद्धा होती है, वह किसी भी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा या संसार में अन्य किसी से भी डिगाया नहीं जा सकता और उसका यह कहना ठीक होता है कि मैं भगवान के मुख से उत्पन्न, धर्म से उत्पन्न, धर्म-निर्मित और धर्म-दायाद पुत्र हूं। यह इसलिए, क्योंकि धर्म-काय, ब्रह्म-काय, धर्म-भूत, ब्रह्म-भूत-ये तथागत के ही नाम है। तत्पश्चात भगवान ने प्रलय के बाद सृष्टि के क्रमिक विकास और प्राणियों की क्रमिक अवनति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया । प्राणियों के नैतिक पतन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जब स्थिति यहां तक बिगड़ गयी कि लोगों ने धान के खेतों का बँटवारा कर इनके इर्द-गिर्द मेड़ बांध दी, तब कोई कोई लोभी सत्व अपने भाग को बचा कर दूसरे के भाग को चुराने लगे। कई बार चेतावनी देने पर भी जब इस प्रवृत्ति में कोई सुधार नहीं हुआ तब लोगों ने हाथ से, ढेले से, लाठी से मारामारी शुरू कर दी। उसी के बाद से चोरी, निंदा, मिथ्या-भाषण और दंड-कर्म होने लगे। तब प्राणियों को अहसास हुआ कि हम में पाप जागा है जैसा कि हम चोरी, निंदा, मिथ्या-भाषण और दंड-कर्म करते हैं। अतः हम क्यों न एक ऐसे प्राणी का चयन करें जो सचमुच करने योग्य बात पर क्रोध करे. निंदनीय कर्मों की निंदा करे और निकालने योग्य को निकाल दे। इसके लिए हम उसे अपने धान में से हिस्सा दें। तत्पश्चात उन प्राणियों ने इस काम के लिए अपने में से सुंदर, सुरूप, प्रासादिक और महाशक्तिशाली व्यक्ति का चयन कर लिया जो ठीक से उचितानुचित का अनुशासन करने लगा और लोग उसे धान का अंश देने लगे । महाजनों द्वारा सम्मत होने से उसका नाम 'महासम्मत' पड़ा, क्षेत्रों का अधिपति होने से उसका नाम 'क्षत्रिय' पड़ा और धर्म से दूसरों का रंजन करने से उसका नाम 'राजा' पड़ा। तब उन्हीं प्राणियों में से किन्हीं-किन्हीं के मन में यह हुआ कि हम में पाप जागा है जैसा 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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