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________________ * कोई व्यक्ति चार संयमों (चातुर्याम संवर) से सुरक्षित हो जाये अर्थात, न जीव-हिंसा करे, न करवाये, न इसमें सहमत हो; और इसी प्रकार चोरी न करने, झूठ न बोलने और पांच कामगुणों में प्रवृत्त न होने के बारे में सजग रहे । फिर प्रव्रज्या को निभाता हुआ, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, एकांत में स्मृति और संप्रज्ञान के साथ पांचों नीवरणों को दूर कर चित्त के उपक्लेशों को प्रज्ञा से दुर्बल करने के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा-युक्त चित्त से सभी दिशाओं में विहार करे । * उक्त प्रकार से ब्रह्मविहार करने के बाद अपने पूर्व-जन्मों को स्मरण करने में लगे। * उक्त प्रकार से अपने पूर्व-जन्मों को स्मरण करने के अनंतर अपने दिव्य-चक्षु से सत्वों की च्युति और उत्पाद को जानने लगे। यहां पर भगवान ने कहा कि इतने से ही तप-जुगुप्सा श्रेष्ठ और सार्थक हो जाती है परंतु जिस धर्म में मैं अपने श्रावकों को विनीत करता हूं वह इससे बढ़-चढ़ कर है। यह सुन कर परिव्राजक बहुत हल्ला करने लगे कि हम तो आचार्य-सहित मारे गये क्योंकि हम लोग इससे अधिक कुछ जानते नहीं। इस अवसर को उचित जान गृहपति सन्धान ने निग्रोध को याद दिलाया कि तुम तो कहते थे कि भगवान की बुद्धि मारी गयी है, वे सभा से मुँह चुराते हैं, संवाद करने में असमर्थ हैं, इत्यादि । अब तुम क्यों नहीं प्रश्न करके उनको चक्कर खिलाते ? यह सुन कर निग्रोध को अपने कहे पर बहुत पश्चात्ताप हुआ और इसके लिए भगवान से कहा कि संयम न रखने के मेरे अपराध को क्षमा करें । भगवान ने उसे क्षमा करते हुए कहा कि आर्य-विनय में यह बुद्धिमानी ही समझी जाती है कि व्यक्ति भविष्य में संयम रखने के लिए अपने अपराध को स्वयं स्वीकार कर धर्मानुकूल प्रतिकार करे । उन्होंने उसे यह भी समझाया कि 'भगवान' बुद्ध हो बोध के लिए, दांत हो दमन के लिए, शांत हो शमन के लिए, तीर्ण हो तरण के लिए और परिनिवृत्त हो परिनिर्वाण के लिए धर्मोपदेश करते हैं। भगवान ने यह भी कहा कि यदि कोई सज्जन, निश्छल, सरल स्वभाव वाला, बुद्धिमान मेरे पास आये, मैं उसे धर्म सिखाऊं और वह मेरी शिक्षा के अनुसार काम करे, तो जिस उद्देश्य के लिए कुलपुत्र घर से बेघर हो अनुपम ब्रह्मचर्य के अंतिम लक्ष्य को सात वर्ष में ही स्वयं जान कर, 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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