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________________ [१८] के आदेश से महागोविन्द ने भारतवर्ष को सात समान भागों में बांट दिया। बीच का भाग रेणु ने रख लिया और शेष छह भाग अपने क्षत्रिय-मित्रों में बांट दिये । इन मित्रों ने भी महागोविन्द को अपना पुरोहित बना लिया। तब महागोविन्द इन सात मूर्धाभिषिक्त क्षत्रियों का अनुशासन करने लगा और सात ब्राह्मण महाशालों तथा सात सौ स्नातकों को मंत्र पढ़ाने लगा। कुछ समय बाद उसकी ऐसी ख्याति फैल गयी कि वह ब्रह्मा को साक्षात देखता है, उनसे वार्तालाप व मंत्रणा भी करता है। तब महागोविन्द के मन में आया कि मेरी ख्याति का कोई आधार नहीं है । पर मैंने बड़े-बूढ़ों तथा आचार्यगण को यह कहते सुना है कि जो वर्षा-काल के चातुर्मास में समाधि लगा कर करुणा-भावना करता है वह ब्रह्मा को साक्षात देख लेता है, उनसे वार्तालाप एवं मंत्रणा भी करने लगता है। अतः मैं भी क्यों न वर्षा-काल के चातुर्मास में समाधि लगा कर करुणा-भावना करूं? तब महागोविन्द ने रेणु राजा के पास जाकर यह सारी बात बतलायी और उससे कहा कि मेरे समाधि-काल में भोजन लाने वाले को छोड़ कर कोई दूसरा व्यक्ति मेरे पास न आये । राजा इससे सहमत हुआ। फिर छहों क्षत्रियों, ब्राह्मण महाशालों तथा स्नातकों और अपनी स्त्रियों की भी सहमति प्राप्त कर वह एक उपयुक्त स्थान पर समाधि का अभ्यास करने लगा। कुछ समय के पश्चात सनकुमार ब्रह्मा महागोविन्द के सामने प्रकट हुए । महागोविन्द ने उनसे पूछा – “कहां रह कर और क्या अभ्यास कर मनुष्य अमृत ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है ?' ब्रह्मा ने उत्तर दिया - ‘मनुष्यों में ममत्व को छोड़ कर एकांत में रहना, करुणाभाव-युक्त होना, पापों से अलग रहना, मैथुन-कर्म से विरत रहना - इन्हीं का अभ्यास कर, और इन्हीं को सीख कर, मनुष्य अमृत ब्रह्म-लोक को प्राप्त होता है।' ब्रह्मा ने उसे यह भी बतलाया कि क्रोध, मिथ्या-भाषण, वंचना, मित्र-द्रोह, कृपणता, अभिमान, ईर्ष्या, तृष्णा, विचिकित्सा, पर-पीड़ा, राग, द्वेष, मद और मोह - इनसे युक्त हो कर नारकीय लोग ब्रह्मलोक से गिर कर दुर्गंध को प्राप्त होते हैं। इन्हें 'आमगंध' कहते हैं। महागोविन्द को लगा कि आमगंध गृहस्थ से जल्दी दूर नहीं किये जा सकते । अतः मुझे घर से बे-घर हो प्रवजित हो जाना चाहिए | तब वह रेणु राजा, छहों क्षत्रियों, सातों ब्राह्मणमहाशालों, सात सौ स्नातकों तथा अपनी स्त्रियों को अपना मंतव्य जतला कर सिर और दाढ़ी मूंडवा कर प्रव्रजित हो गया। उसकी देखादेखी ये सब भी प्रव्रजित हो गये और इनके अतिरिक्त हजारों अन्य लोगों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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